कोरोना महामारी के कारण बिहार में राजनीतिक अस्थिरता के हालात बनते नजर आ रहे हैं। बिहार में कोरोना संक्रमण के लगभग 900 केस दर्ज किये जा चुके हैं और ये आँकड़ें लगातार बढ़ते जा रहे हैं। अप्रवासी कामगारों की आवक बढ़ने से यह संक्रमण आने वाले समय में तेजी से बढ़ेगा। पूरे राज्य के अफसर इस महामारी से जूझने में हलकान हैं। अन्य राज्यों की तुलना में टेस्टिंग के मामले में बिहार अभी भी कमतर साबित हो रहा है। कॉम्प्रिहेन्सिव टेस्टिंग , ट्रेसिंग और ट्रीटमेंट के बगैर राज्य इस महामारी से पार न पा सकेगा और लम्बे समय तक इसके दंश से जूझता रहेगा। जिस तरह से राज्य का पूरा महकमा इससे जद्दोजहद कर रहा है , फिर भी सबके चेहरे पर पसीने की बूँदे टपक रही है , इससे राज्य के किसी आपात हालात से निबटने की तैयारी का सहज ही अंदाजा हो जाता है। आइसोलेशन सेंटरस और कोरंटीन सेंटर्स की बदइंतजामी राज्य सरकार के सब चंगा सी वाले दावे की पोल खोल रही है।
इस सबके बीच बिहार के राजनीतिक हलकों में इस बात के चर्चे शुरू हो गए हैं कि इस साल बिहार के विधानसभा चुनाव निश्चित समय पर हो सकेंगे ?
29 नवंबर 2020 को मौजूदा बिहार विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। इसका अर्थ यह है कि इस तारीख से पहले बिहार विधानसभा का चुनाव संपन्न होकर नयी विधानसभा का गठन हो जाना चाहिए अन्यथा राज्य एक नए राजनीतिक संकट का सामना करेगा। आधा मई बीत चुका है। AIIMS के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया का कहना है कि भारत जून -जुलाई तक कोरोना के चरम को छूएगा और फिर इसका ग्राफ नीचे आना शुरू होगा। रेलवे ने 30
जून तक के सभी प्री बुक्ड टिकट्स रद्द कर दिए हैं। इसका मतलब यह है किसी भी कीमत पर अगस्त से पहले स्थितियाँ सामान्य की तरह नहीं होंगी। और तब चुनाव आयोग और सरकारी अमलों के पास महज 2 महीने ही बच जायेंगे जिसमें उन्हें चुनाव संपन्न कराने की पूरी तैयारी करनी होगी। ऐसे में जब सारा सरकारी महकमा कोरोना से निबटने में व्यस्त है , क्या शेष बचे मात्र 2 महीने में चुनाव संपन्न करवा सकेंगे , यह अहम सवाल है। सिर्फ इतना ही नहीं , राजनितिक दलों को भी चुनावी मैदान में जाने के लिए , प्रचार के लिए कम से कम 3 महीने से अधिक का समय चाहिए जिसमें वे अपनी तैयारी को मुकम्मल कर सकें।
क्या कहते हैं बिहार सरकार के मंत्रीगण और राजनीतिक जानकार ?
इस संबंध में बिहार सरकार के परिवहन मंत्री संतोष कुमार निराला से जब किसी पत्रकार ने इस बाबत सवाल पूछा तो उनका जबाव था कि अभी सरकार के सामने प्राथमिकता कोरोना वायरस से निपटने की है। चुनाव आते और जाते रहेंगे. हमारे सामने प्राथमिकता बिहार की जनता है। वहीं, बीजेपी नेता और श्रम संसाधन मंत्री विजय सिन्हा ने कहा है कि आने वाले दिनों में चुनाव और रहन-सहन तमाम क्रियाकलाप में भारी बदलाव होने वाले हैं। फिलहाल दो-तीन महीने तो ऐसी संभावना नहीं है कि हम चुनाव में जाने की सोच सकते हैं। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता दानिश रिजवान का कहना है कि हमारे लिए पहले लाखों मजदूरों को बचाने की प्राथमिकता है, जहां तक सवाल चुनाव कराने की है तो राष्ट्रपति शासन लगना तय है। तो मुख्य विपक्षी दल राजद की इस मामले में क्या राय है ? इस पर आरजेडी पूरे मसले पर गोलमोल जवाब दे रही है पार्टी के मुख्य प्रवक्ता भाई वीरेंद्र का कहना है कि चुनाव के बारे में अंतिम फैसला चुनाव आयोग को लेना है. सरकार के सामने राष्ट्रपति शासन समेत विधानसभा के कार्यकाल को बढ़ाने का विकल्प मौजूद है। तो दूसरी तरफ राजनीतिक विश्लेषक डीएम दिवाकर का मानना है कि कोरोना वायरस के चलते बिहार में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गई है और यह लंबा खींचने वाला है. ऐसी स्थिति में समय पर चुनाव होगा, इसकी संभावना कम है। एक विकल्प तो है कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए और दूसरा विकल्प यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दे और वह कार्यकारी मुख्यमंत्री के तौर पर काम करते रहें। बिहार में कब चुनाव होंगे, यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कोरोना वायरस के संक्रमण पर किस तरीके से काबू पाया जाता है और चुनाव आयोग पूरे मसले पर किस तरीके का रुख अपनाती है। इस तरह यह तो साफ हो चूका है कि बिहार एक बार राजनीतिक संकट की तरफ बढ़ चुका है , यह तय है।
नीतीश कुमार के सामने क्या -क्या विकल्प हैं ?
इन हालातों में बहुत सीमित विकल्प बच जाते हैं। पहला विकल्प तो यह हो सकता है कि राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाय। यह विकल्प सबसे ज्यादा मुफीद किसके लिए लगता है ? मैं समझता हूँ भाजपा के लिए यह सबसे अधिक लाभकारी स्थिति है। क्यूँकि ऐसे में राज्य की सारी सत्ता और ताकत केंद्र एन्जॉय करने लगता है और राज्यपाल के जरिये पूरी मशीनरी का चुनाव में अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल करना निश्चय ही उसे स्कोर सेट करने में मदद करेगा। लेकिन नीतीश कुमार इस विकल्प से असहज महसूस कर सकते हैं। राष्ट्रपति शासन में चुनाव होने पर एक पार्टी के तौर पर जदयू का नुकसान होना तय है और भाजपा बार्गेन करने के पोजीशन में आ सकती है। लेकिन नीतीश कुमार को नाराज कर भाजपा राष्ट्रपति शासन के विकल्प को अपनाना अफ़्फोर्ड कर सकती है ? इसकी सम्भावना कम लगती है। क्यूँकि बिहार में सत्ता का मजा लेने के लिए भाजपा को अभी नीतीश कुमार रुपी बैसाखी की दरकार है।
ऐसे में दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि नीतीश कुमार विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दें और राज्यपाल के आग्रह पर विधानसभा चुनाव होने तक कार्यकारी मुख्यमंत्री बने रहें। इसमें नीतीश कुमार भी ज्यादा रुष्ट नहीं होंगे हालाँकि एक कार्यकारी मुख्यमंत्री के पास नीतिगत फैसले लेने के लिए बहुत अधिक शक्तियाँ नहीं बची रह जाती हैं। फिर भी नीतीश कुमार इस विकल्प के लिए हामी भर सकते हैं।
एक तीसरा विकल्प भी है कि विधानसभा का कार्यकाल को ही बढ़ा दिया जाय। हालाँकि यह 6 महीने से ज्यादा के लिए नहीं हो सकता। संविधान के अनुच्छेद 143 के क्लॉज़ 1 के तहत राष्ट्रपति को यह ताकत हासिल है कि असामान्य परिस्थितियों में जब विधानसभा का चुनाव करवा पाना समय पर बिलकुल संभव न हो तो एक बार में विधानसभा के कार्यकाल को 6 महीने के लिए बढ़ा सकता है।
ऐसे में क्या तय होगा , यह तो आने वाले समय में पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि बिहार एक बड़े राजनितिक संकट की तरफ बढ़ चुका है।
लालबाबू ललित, लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील है. ये लेखक के निजी और व्यक्तिगत विचार हैं अतः इसे पढते समय पाठक जन अपने विवेक का प्रयोग करें, और इस लेख को पढने के बाद अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।