सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को तेलंगाना हाई कोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी अपने पूर्व पति से सीआरपीसी, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने तेलंगाना हाई कोर्ट द्वारा तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी को ₹10 हज़ार प्रति माह गुजारा भत्ता देने के निर्देश को चुनौती देने वाली एक याचिका को खारिज करते हुए कहा की सभी मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद 125 सीआरपीसी के तहत अपने पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है।
आगे शीर्ष अदालत ने कहा कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत राहत एक सामाजिक सुरक्षा का उपाय है जो किसी भी मुस्लिम पर्सनल लॉ के उपाय से स्वतंत्र रूप से संचालित होती है।
जबकि ऊँची अदालत का यह फैसला “मुस्लिम पर्सनल लॉ” के खिलाफ़ बताया जा रहा है, इस मामले पर आल इंडियन मुस्लिम वीमेन एसोसिएशन की प्रेजिडेंट डॉक्टर आसमा ज़हरा कहती हैं –
“ये मुस्लिम पर्सनल लॉ में मदाख़लत है। इस्लाम ने हम मुसलमान औरतों को इतना मजबूर बेबस नहीं किया है कि साबिक़ा शौहर के गले पड़ें। मुस्लिम औरतों को इस्लाम ने एम्पॉवर किया है और उसे तलाक़ के बाद दूसरी शादी की इजाज़त दी है। इस्लाम में शादी जनम-जनम का बंधन नहीं है और इस ऐतबार से अगर शादी टूटती है तो सिर्फ 3 महीने या इद्दत तक वो उस शख्स की ज़िम्मेदारी रहेगी। उसके बाद उसकी ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी। हमेशा ये जो मीडिया को हैजान हो जाता है कि मुसलमान औरतों को हक़ दिलाना है तो देखिये देश में हम मुसलमान सिर्फ 14% है। पूरे देश की औरतों के बड़े-बड़े प्रोब्लेम्स है। NCRB का डाटा बताता है कि क्राइम्स अगेंस्ट वीमेन उरूज़ पर है कभी मीडिया इसकी तरफ तवज्जह नहीं देता और सिर्फ मुसलमान औरत को बेचारी मजबूर और लाचार बताने की कोशिश करता है ये सरासर मुसलमान औरतों के साथ ज़्यादती है।”
दरअसल यह पूरा मामला तेलंगाना का है , जब एक मुस्लिम महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए, तेलंगाना हाई कोर्ट ने अब्दुल समद को अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता के तौर पर हर महीने 10 हजार रुपए देने का आदेश दिया था। इसी मामले को चुनौती देते हुए अब्दुल समद ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था, जहां अदालत ने धारा 125 सीआरपीसी का हवाला देते हुए याचिका को खारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए प्रोफेसर अख्तरुल वासे ने कहा कि –
“ये जो सुप्रीम कोर्ट का फैसला है वो कोई नया फैसला नहीं। इस क़िस्म के फैसले मुस्तक़िल आते रहते है और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस सिलसिले में एक फाइनल फैसला करना चाहिए। हम देख रहे है कि बराबर हमारी घेराबंदी हो रही है। और हमें मुसलमानों की मुआशी हालत को पेशेनज़र रखते हुए मुसलमान औरतों के सिलसिले में अपने रवैय्ये पर नज़रेषानी करनी चाहिए और कोई ना कोई रास्ता निकालना चाहिए कि किस तरह से लोगों को खतरे से बचाया जाए।”
इस संबंध में जब मिल्लत टाइम्स ने जमीयत उलेमा हिन्द के राष्ट्रिय सचिव नियाज़ अहमद फ़ारूक़ी से बात की तब उन्होंने बताया कि –
“ये एक पुराना मामला है। ये हर कुछ दिनों में शोशेबाज़ी होती है फिर सारी क़ौम उसके पीछे लग जाती है जबकि ये एक सेटल्ड मसला है। इसपर तो 2001 में ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका था। उसके बाद से लगातार इसी तरह के फैसले आ रहे है। मीडिया बस इसे उठा लेती है और शोशेबाज़ी शुरू कर देती है। ये फैसला जिस क़ानून के तहत आया है वो क्रिमिनल लॉ का सेक्शन 125 है। क्रिमिनल लॉ के अंदर पर्सनल लॉ कोई मदाखलत नहीं कर सकती। 2001 के दानियाल लतीफ़ी का फैसला आया था तो सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की वज़ाहत कर दी थी कि सेक्शन 125 के तहत जो हक़ अन्य औरतों को हासिल है वही हक़ मुस्लिम औरतों को भी हासिल है। 1986 के मुस्लिम प्रोटेक्शन एक्ट का इसपर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। तो ये कोई नया फैसला नहीं है। जो कोई मुक़दमा लड़ता है उसपर फैसला आता है और मीडिया उसपे शोशेबाज़ी करती है जिसपर क़ौम परेशान हो जाती है।”