इस्लाम विरोधी विचारधारा और जेएनयू के वामदल

New Delhi: JNUSU President Kanhaiya Kumar with Umar Khalid and other students carried torch parade at JNU campus in New Delhi on Wednesday. PTI Photo by Kamal Singh(PTI4_27_2016_000284B)

जेएनयू का उदारवादी वाम मुस्लिम नौजवानों की आस्था का मजाक उड़ाता है और उन्हें शर्मिंदा करता है

14 अक्टूबर 2016 को बायोटेक्नोलॉजी के प्रथम वर्ष के छात्र नजीब अहमद को माही मांडवी हॉस्टल में एक तथाकथित झड़प के बाद पीटा गया और अगले दिन नजीब रहस्यमय ढंग से गायब हो गया. ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय का कोई छात्र लापता हो गया हो और कोई सुराग तक ना मिला हो. स्टूडेंट इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन, वाईएफडीए और शेहला राशिद आदि कई वामपंथी नेताओं ने बयान दिए कि भीड़ ने नजीब को मुसलमान होने के कारण पीटा और परिसर में इस्लाम विरोधी माहौल व्याप्त है. इस दलील से कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़े होते हैं क्योंकि जेएनयू मुख्यधारा की वामपंथी छात्र राजनीति, मसलन सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल)और इनके अतिरिक्त कुछ नासमझ किंतु अधिक रेडिकल वाम संगठनों का गढ़ रहा है.

नजीब के गायब होने का जिम्मेदारी कौन?

वामदलों के प्रभुत्व वाले और स्वघोषित निरपेक्षता के लिए विख्यात एक विश्वविद्यालय के आवासीय परिसर में इस्लाम विरोधी भीड़ अगर इस प्रकार के बर्बर हमले को अंजाम दे सकती है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? ऐसे में नजीब के गायब होने की जिम्मेदारी किसकी है? वाम दलों के नेताओं के पास इन प्रश्नों का रटा-रटाया उत्तर यह है की परिसर में एबीवीपी की ताकत बढ़ गई है और इसी कारण मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. लेकिन गौर से देखने पर यह जवाब संतोषजनक नहीं लगता क्योंकि परिसर में स्वयं को निरपेक्ष कहने वाली वाम विचारधारा का समर्थकों की संख्या और अकादमिक सम्मान दोनों में ही प्रभुत्व एवं एकाधिकार है.

और गहराई से पड़ताल करने पर हम यह पाते हैं कि वामदलों की बयानबाजी भी स्वभावत:मुस्लिम विरोधी ही है जिसमें अक्सर मुसलमानों के खिलाफ द्वेषपूर्ण भाषण और इस्लाम का बचकाना चित्रण पाया जा सकता है.

इस्लाम के भीतर भी बहस है

यहां पर हम इस्लाम में महिलाओं की स्थिति या स्वतंत्रता, ट्रिपल तलाक या मुसलमानों में जाति प्रथा से संबंधित परिचर्चा की बात नहीं कर रहे हैं. इन विषयों पर इस्लाम के धर्मशास्त्र के अंदर ही व्यापक बहस पहले से चल रही है और इस्लाम के असंख्य विद्वान भी इन मुद्दों पर आपस में मोर्चा खोले हुए हैं. यहां हम उन बयानों और विचारों की बात कर रहे हैं जो उन मुद्दों से संबंधित हैं जोकि इस्लाम की आस्था से बहुत मौलिक रुप से संबंधित है और जिनके बारे में अपरिपक्व व्यवहार और बयानबाजी से पहले से ही त्रस्त मुस्लिम युवा और अधिक अलगाव महसूस करने लगते हैं.

उदाहरण के लिए, नजीब एक धार्मिक रुझान वाला युवक था और बरेलवी सूफी मत की एक धारा से प्रभावित था जैसा कि महान सूफी गौस-ए-आज़म के बारे में उसकी कई फेसबुक पोस्टों से पता चलता है.

आइए इस प्रकार की बयानबाजी के कुछ नमूने देखते हैं:

वामपंथी छात्र संगठन आइसा के सदस्य और भूतपूर्व पदाधिकारी हर्ष वर्धन इस फेसबुक पोस्ट में दावा करते हैं कि कुछ मुसलमानों के आतंकवादी बनने का कारण कम से कम आंशिक तौर पर इस्लाम धर्म ही है और उनकी पवित्र पुस्तक कुरान में स्पष्टत: ऐसी खामियां है जिनकी वजह से वे हिंसक गतिविधियों के लिए प्रेरित होते हैं.

इन महानुभाव ने आतंकवादी गतिविधियों और वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों के बीच के संबंध को उजागर करने वाले किसी विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ को पढ़ा या समझा तक नहीं है, आतंकवाद की एक अस्पष्ट अवधारणा की आलोचना करना तो शायद इनके लिए बहुत दूर की बात है.

फिर भी कुरान के बारे में कम से कम एक बुनियादी ऐतिहासिक समझ की उम्मीद तो इनसे की ही जा सकती थी. कई सदियों और कई महाद्वीपों की मुस्लिम जनता में कुरान की स्वीकार्यता इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था.

लेकिन उनका यह बयान एक सामान्यीकरण है जो कि यह दावा करता है कि कुरान पढ़ने से आप आतंकवादी बन सकते हैं. यह एक पूरी कौम या समुदाय को एक रंग में रंगने वाली घटिया सोच और एक इस्लाम-विरोधी बयान है.

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस्लाम का विरोध कितना सही है?

फिर भी आइसा के कई कार्यकर्ता इस पोस्ट का तर्कसंगत वाद-विवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक उदाहरण के रूप में समर्थन और बचाव करते रहे. अपनी एक पोस्ट में शहला रशीद द्वेषपूर्ण भाषण या भड़काऊ बयानबाजी क्या होती है यह समझाने का जिम्मा उठा लेती हैं. वे एक उदाहरण देती हैं जिसमें मुहम्मद के लिए एक अपमानसूचक शब्द का प्रयोग किया जाता है और दावा करती हैं कि यह कथन द्वेषपूर्ण भाषण का उदाहरण नहीं है.

इस पूरी समस्या की एक वजह यह भी है कि इन चिंतकों का तर्क से दूर का भी कोई नाता नहीं है. अगर कोई इस्लाम के बारे में थोड़ी भी जानकारी रखता है तो उसे यह पता होगा की इस्लामी आस्था में मुहम्मद को एक सर्वोपरि मानवीय आदर्श माना जाता है. अतः इस पोस्ट में जहां मुहम्मद के बारे में एक अापराधिक श्रेणी की बात की जा रही है, इसका अर्थ यह भी निकलता है कि मुहम्मद के अनुयायी अर्थात सभी मुस्लिम उसी आपराधिक श्रेणी में रखे जाने चाहिए.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र संघ ने इस पर प्रतिक्रिया दी और कैबिनेट मेंबर गजाला अहमद ने शहला के खिलाफ द्वेषपूर्ण भाषण की एफआईआर दर्ज करायी. जेएनयू छात्रसंघ और वाम बुद्धिजीवी शहला के बचाव में कूद पड़े और अचानक अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय को एक दकियानूसी विश्वविद्यालय का खिताब देने लगे. यहां तक कि गजाला को पितृसत्तात्मक अलीगढ़ मुस्लिमविश्विद्यालय छात्र संघ के हाथों में एक कठपुतली भी कहा जाने लगा.

नारीवाद के नाम पर इस्लाम पर हमला कितना सही?

एक और बचकानी पोस्ट जो इन दायरों में इस्लाम विरोधी सोच के लक्षणों को दर्शाती है, उसमें इस्लामी नारीवाद पर प्रहार किया गया.
आधुनिक इतिहास के छात्र और आइसा के एक कार्यकर्ता से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी क्योंकि धार्मिक और गैर-धार्मिक मुद्दों पर पिछली पूरी सदी में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिरोध के बारे में मुसलमानों और गैर मुसलमानों द्वारा लिखी हुई अकादमिक पुस्तकों की कोई कमी नहीं है.

इस्लामी-नारीवाद शब्द-युग्म का प्रयोग एक खास संदर्भ में किया जाता है जिसमें की मुस्लिम विदुषियों ने महिलाओं के नजरिए से इस्लामी ज्ञान की एक विभिन्न और पूरक प्रकृति को सामने लाया है, जिसमें कि कभी-कभी परिवार की विक्टोरियन अवधारणा को भी पीछे छोड़ देना पड़ता है.

दूसरी आपत्तिजनक बात इस पोस्ट में यह की मोहम्मद को सिजोफ्रेनिया की बीमारी का शिकार बताया गया है. यह मुस्लिम पहचान और आस्था पर सीधा हमला है.

कोई इतिहासकार बिना प्रामाणिक और मूल स्रोतों के कैसे एक बीमारी का पता लगा सकता है, ये हमारी समझ के बाहर है.आश्चर्य की बात यह है कि कुछ वामपंथी विद्वानों ने इस पोस्ट का समर्थन तार्किक सोच के नाम पर किया.

फतवे का सच और जेएनयू के वामपंथी

आखिरी उदाहरण सबसे ज्यादा चिंताजनक है. यह श्रेणी है फेक न्यूजज अर्थात झूठी खबरों की. तथाकथित फतवों के बारे में आने वाली लगभग सभी खबरें इसी श्रेणी में आती हैं.

यहां यह साफ करते चलें कि फतवा दरअसल एक पंजीकृत मुफ्ती द्वारा किसी के पूछने पर इस्लामी आस्था के नैतिक मूल्यों के बारे में दी गई एक कानूनी राय होती है जो कि किसी भी रुप में बाध्य नहीं है.

यह बताना इसलिए भी जरूरी था कि आजकल के अखबारों के किसी आम पाठक को यह भी गलतफहमी हो सकती है कि कोई भी दाढ़ी वाला मुसलमान अगर किसी हिंसात्मक गतिविधि के लिए उकसाने वाला कोई बयान देता है तो उसे फतवा कहा जाता है.

आम जनमानस में फतवे कि यही धारणा बना दी गई है. जेएनयू शिक्षक संघ की अध्यक्ष आयशा किदवई ने अपनी टाइमलाइन पर यह शेयर किया.

यह झूठी खबर दरअसल 2 साल पुरानी है लेकिन उन्होंने पिछले रविवार को इसे शेयर किया. हफिंगटन पोस्ट, द गार्जियन जैसे समाचार प्रतिष्ठान 2 सालों से बता रहे हैं कि यह खबर झूठी है.

मुफ्ती-ए-अाज़म ने भी खुद ये साफ किया है कि उन्होंने ऐसा कोई फतवा नहीं दिया. यहां सवाल यह नहीं कि हम मुफ्ती-ए-अाज़म की इस्लाम के बारे में अवधारणा से सहमत हैं या नहीं क्योंकि यह तो अलग-अलग प्रकार की आस्थाओं वाले मुसलमानों के बीच एक व्यापक बहस का मुद्दा है.

यहां ध्यान देने की बात यह है कि इन बुद्धिजीवियों ने चुन-चुन कर ऐसे समाचारों का प्रचार किया जो मुसलमानों को नीचा दिखाते हैं

यहां हमारा उद्देश्य इन व्यक्तियों की निंदा करना नहीं है ना ही हम बात को कुछएक खराब व्यक्तियों के होने या ना होने की दिशा में ले जाना चाहते हैं.

हमारा मानना यह है कि इन पोस्टों से वाम दलों के भीतर मौजूद मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पता चलता है. यही वजह है कि पिछड़े इलाकों से आने वाले कई मुस्लिम छात्रों को यह गलतफहमी हो जाती है कि उनकी मुस्लिम पहचान,आस्था और व्यक्तिगत आचरण और विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठित वामदलों के सुनने में बहुत ऊंचे लगने वाले आदर्शों में 36 का आंकड़ा है.

इस द्वेषपूर्ण बयानबाजी और साथियों के दबाव के द्वारा यहां का उदारवादी वाम मुस्लिम नौजवानों की आस्था का मजाक उड़ाता है और उन्हें शर्मिंदा करता है. इस प्रकार वे विद्यार्थियों पर विचार और व्यवहार की एक खास पद्धति थोपना चाहते हैं.साथ ही साथ यह उनके इस्लाम विरोधी जनाधार का तुष्टीकरण भी करता है.

लेखक: Sharjeel Imam and Saqib Salim
(दोनों ही लेखक जेएनयू से इतिहास के शोधकर्ता हैं) साभार: फर्स्टपोस्ट

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