जेल से दुनिया: एक मुसलमान राजनितिक क़ैदी की नज़र में

शरजील इमाम एक जाने-माने मुस्लिम छात्र कार्यकर्ता और जेएनयू में शोध छात्र हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ हुए जनांदोलन के दौरान भाषण देने के लिए वो जेल में हैं और यूएपीए और देशद्रोह की कठोर धाराओं का सामना कर रहे हैं। ये लेख उन्होंने जेल से 10 सितम्बर 2022 को लिखा है।
~

मैं अभी भी उस बदलाव की गहराई को समझ नहीं पा रहा हूं जिसका असर मुझ पर जेल में इन सालों में हुआ है। इस बदलाव के दो पहलू हैं ,पहला ये की मैं ख़ुद को कैसे देखता हूँ और मेरा बर्ताव कैसा है और दूसरा ये कि लोग मुझे कैसे देखते हैं और मेरे बारे में क्या सोचते हैं। ज़ाहिर है कि ये दोनों पहलू एक दूसरे के साथ किसी उलझी हुई बहस के दो सिरों की तरह जुड़े हुए हैं।

पहले दूसरे पहलू की बात करते हैं, मैं लोगों के लिए क्या हूँ?
अलग-अलग तरह के लोगों के लिए मेरे अलग-अलग रूप हैं । ज़्यादातर लोगों के लिए मैं एक आतंकवादी हूँ ,ये लोग प्रशासन की बताई इस बात पर यक़ीन करते हैं कि मैंने दिल्ली में दंगे कराने की साज़िश रची। भले ही दंगे मेरी गिरफ़्तारी के महीने भर बाद हुए हों, मैं फिर भी इनलोगों के लिए वो आतंकवादी हूँ जो इन दंगों के लिए ज़िम्मेदार है। इसके बाद उन लोगों का समूह है जो थोड़ा ज़्यादा समझदार हैं और जो कहते हैं- “वो आतंकवादी भले न हो, मगर देशद्रोही तो ज़रूर है “. समझदार लोगों का ये समूह मेरा आकलन अपने इस विश्वास के आधार पर करता है कि मैं असम को भारत से काटना चाहता था। इसके बाद एक तीसरा समूह है जो मुझे ऐसा महत्वाकांक्षी राजनेता समझता है जो लोगों को भड़का कर रातों-रात शोहरत हासिल करना चाहता था और जो अब जेल में इस महत्वकांक्षा की सही क़ीमत चुका रहा है। जेल के अंदर और बाहर ज़्यादातर लोग जो मेरी गिरफ़्तारी को जायज़ ठहराते हैं, इन्ही तीन में से एक समूह का हिस्सा हैं। ये लोग मेरे बारे में और कुछ जानना नहीं चाहते और मेरी उस छवि से मुतमईन हैं जो मीडिया ने उनके सामने पेश की है। ये लोग अपने-अपने राजनैतिक नज़रिये की तीव्रता के अनुसार या तो मुझसे बहुत नफ़रत करते हैं या मुझे महज़ दोषी समझते हैं।

मेरे लिए और लम्बी जेल अवधि की कामना करने वाले इन समूहों के अलावा कुछ ऐसे हमदर्द समूह हैं जिन्हे लगता है की मुझे अन्यायपूर्ण तरीक़े से क़ैद किया गया है। इन हमदर्दों का सबसे उदारवादी समूह नफरत करने और दोषी मानने वालों के तीसरे समूह के ठीक बाद है। वे कहते हैं, “हां, वह एक महत्वकांक्षी राजनीतिज्ञ है। हां, उसने मशहूर होने के लिए लोगों को उकसाया था। लेकिन आप किसी को सिर्फ एक भाषण के लिए सालों तक जेल में नहीं रख सकते। आखिर वह कॉलेज का छात्र है, आतंकवादी नहीं।” हालाँकि मुझे नहीं लगता की सोचने का ये तरीक़ा बहुत मददगार है, फिर भी शुक्रिया।

इस समूह के बाद वो लोग हैं जिन्हे लगता है की मैं वर्त्तमान सरकार द्वारा मुसलमानों पर किये जा रहे अत्यचार के ख़िलाफ़ बोल रहा था और ऐसा करते हुए मैंने थोड़ी सीमा लांघ दी, फिर भी मैं नेक इरादे से लड़ाई लड़ रहा था और मुझे झूठी धाराओं में क़ैद किया गया। ये लोग ज़्यादातर भाजपा के विरोधी हैं, CAA के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन का महत्त्व समझते हैं और मुसलामानों से हमदर्दी रखते हैं। इस समूह से मुझे भविष्य की आस है।

इसके बाद बड़ी संख्या में ग़रीब मुसलमान हैं, जो सीएए से अनभिज्ञ होने और हमारे संसदीय लोकतंत्र के कामकाज के बारे में विस्तृत और गहरे ज्ञान की कमी के बावजूद मेरे प्रति सहज सहानुभूति रखते हैं। वो इस तेज़ी से बहुसंख्यकवादी और प्रतिगामी होते जा रहे समाज में ग़रीबी और हिंसा का सामना कर रहे हैं। जो प्यार मुझे इनसे मिला है वो मुझे संतुष्ट करता है और मेरा हौसला बढ़ाता है। ये लोग मुझ पर इतना गहरा असर डालते हैं जितना गहरा असर मेरी ज़िन्दगी में पहले कभी किसी चीज़ ने नहीं डाला। भले ही वो मेरी कही गयी या लिखी गयी हर बात को फ़ौरन न समझ पाएं मगर वो निश्चित तौर पर इन बातों से ख़ुद को जुड़ा हुआ पाते हैं। इंसाफ़ और बराबरी की धारणाओं को वैसे भी अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं होती। मुझसे हमदर्दी रखने वालों में ये समूह सबसे बड़ा है और सबसे ख़ास भी।

और अब बात पहले पहलू पर, कि मैं ख़ुद को कैसे देखता हूँ?

कुछ परिप्रेक्ष्य देने के लिए बता दूँ कि जब मुझे जेल भेजा गया तब मैं साढ़े-इकतीस साल का था और अब मैं चौंतीस साल का हो गया हूँ। 16 साल पहले 2006 में मैंने कॉलेज (आईआईटी बॉम्बे) में प्रवेश लिया था, 2011 में मैंने सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करना शुरू किया और जेल भेजे जाने तक मैं ये काम करता रहा। सॉफ्टवेयर इंजीनियर का काम करते हुए मैंने 2013 में जेएनयू में इतिहास की पढाई शुरू की, 2017 में अपनी एम्.फ़िल थीसिस पूरी की और जब 2020 में मुझे जेल भेजा गया तब मैं अपनी पी.एच.डी कर रहा था। अभी तक, मेरी बदलती हुई ख़ुद की तस्वीर को दो अलग-अलग (मगर कुछ बिंदुओं में एक दूसरे के सामान) विचारों के समूह के माध्यम से उकेरा जा सकता है – एक धार्मिक और दूसरा राजनीतिक विचारों का समूह। मैंने नीचे अपने इन दो विचार समूहों का संक्षिप्त विवरण दिया है:

मेरे राजनीतिक विचारों के समूह में राष्ट्रवाद, केंद्रीकरण, बहुसंख्यकवाद, सरल बहुमत प्रणाली, अनुसूचित जाति वर्ग के आरक्षण में मुसलमानों और ईसाइयों को बाहर रखने जैसे मुद्दों से जुडी चिंताएं हैं। इन विचारों के आधार पर विकेंद्रीकरण, राज्यों की स्वायत्तता, चुनाव में आनुपातिक प्रतिनिधित्व, मुसलमानों और ईसाई दलितों के लिए आरक्षण, पिछड़ी जातियों के लिए अवसर की समानता, भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा, बड़े उद्यमों के सार्वजनिक मिलकियत जैसी मांगे हैं। संक्षेप में, राष्ट्रवाद जैसी ज़हरीली विचारधारा और हमारे सिस्टम में व्याप्त प्रणालीगत कमियों के पूर्ण मूल्यांकन और लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, समाजवाद, अल्पसंख्यक अधिकारों और संघीय ढाँचे की पूरी समझ विकसित करने का पक्षधर हूँ। दक्षिण एशियाई इतिहास के संदर्भ में हमें अम्बेडकर, जिन्ना, लोहिया और पेरियार के विचारों का अनुसरण करना होगा और उनसे जुड़ना होगा।

मेरे धार्मिक विचारों में उन मुसलामानों की कल्पना है जो क़ुरान के संरक्षक के रूप में इस्लाम को इस्लामिक विद्वानों की पकड़ से आज़ाद कराने का और इसके सभी बुरे स्वरुप और बीते युग की अन्य धारणाओं जैसे सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, जातिवाद, पितृसत्ता, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर मनमानी रोक-टोक से इसे मुक्त कराने का संघर्ष करने को तैयार हैं। व्यक्तिगत तौर पर मैं भले ही मौलाना आज़ाद द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिक विश्लेषण से सहमति न रखूँ और इसकी आलोचना करूँ मगर धार्मिक विद्वता में, ख़ास कर क़ुरान के साफ़ और असरदार व्याख्या के मामले में 20वीं सदी के दक्षिण एशिया में उनके क़द के कुछ ही मुसलमान हुए हैं। क़ुरान की व्याख्या करते हुए एक जगह वे कहते हैं –
“कुरान में हमें बार-बार बताया गया है कि धर्म (दीन) का अर्थ उन सभी धर्मों में समान है जो मानव कल्याण के लिए वजूद में आये, तौहीद (एकेश्वरवाद) में मानव जाति की समानता और भाईचारे का अर्थ छुपा है, और जज़ा-ओ-सज़ा (प्रलय और फ़ैसले का दिन) में न्याय और नेक कामों पर जोर दिया गया है। बाकी किसी चीज़ का बुनियादी महत्त्व नहीं है, भले ही वो चीज़ें विभिन्न धार्मिक समुदायों में दीन के इन बुनियादी मूल्यों का आवश्यक पहलू हों। मुसलमान हों या ग़ैर-मुसलमान, शिया हों या सुन्नी, मोक्ष हर ईमानदार और धर्मशील (मुत्तक़ी) आस्तिक का अधिकार है।” [मौलाना अबुल कलाम आजाद, तर्जुमान-उल-कुरान, खण्ड-002, आयत 2:62, 5:48, 5:69, 2:177, 3:113 पर उनकी टिपण्णी देखें ]

हमारे धार्मिक मूल्यों के सबसे महत्वपूर्ण निहितार्थों में से एक यह है कि सभी प्राकृतिक संसाधन और सार्वजनिक सम्पत्तियाँ भगवान की हैं और इनपर सम्पूर्ण मानवता का अधिकार है, न कि एक-दो व्यक्ति या राष्ट्र का। इस्लाम न्याय की कामना और खोज में लगे व्यक्तियों का धर्म है। मैं उम्मीद करता हूँ की अपने धार्मिक संस्थानों के ख़िलाफ़ ऐसे ही संघर्षों में शामिल ग़ैर-मुसलमानों को भी मुझसे थोड़ी सहानुभूति होगी। मेरे द्वारा धर्म की ये सरल मगर असरदार व्याख्या कुछ लोगों को बचकाना लग सकती है और कुछ को इस व्याख्या में ख़ुदा की तौहीन नज़र आ सकती है मगर यह मौलाना आज़ाद, अल्लामा इक़बाल, और ईरानी क्रांतिकारी अली शरीअती जैसे आधुनिक गुरुओं द्वारा और इन सब के गुरु, परम ज्ञानस्रोत पैग़म्बर मोहम्मद द्वारा दिखाया हुआ रास्ता है। मैं ख़ुद को उन्हीं लफ़्ज़ों में बयान करूँगा जिनका इस्तेमाल ग़ालिब ने अपने लिए किया था :

ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझको ग़म क्या है

(I am the slave of (divine) bartender of Kausar, why I should be worried)

साक़ी – शराब परोसने वाला व्यक्ति
कौसर- स्वर्ग में स्थित एक पवित्र तालाब
साक़ी-ए-कौसर – पैग़म्बर मुहम्मद और हज़रत अली के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द

और मैं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के साथ खड़ा हूँ जब वो न्याय के लिए और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ पैग़म्बर से मार्गदर्शन की उम्मीद करते हुए फ़ारसी में लिखते हैं :

बायद के ज़ालिमाने जहां रा सदा कुनद
रोज़ी बेसूए अदल-ओ-इनायत सदा-ए-तू

ये निश्चित है की एक दिन दुनिया भर के ज़ालिम आपकी न्याय और करूणा की आवाज़ का जवाब देने के लिए बुलाये जायेंगे।

जेल जाने से पहले मैं व्यक्तिगत तौर पर ऊपर बताये गए आख़री दो समूहों से बहुत कम लोगों को जानता था और अगर उन दोनों समूहों के संगम वालों की बात की जाए तो ऐसे लोग और भी कम थे। मैं उम्मीद करता हूँ और ख़ुदा से दुआ करता हूँ की बाहर की दुनिया में मैं जिन लोगों से मिलूं उनमें से ज़्यादातर आख़री दो समूहों के संगम वाले लोग हों, क्यूंकि ये वो लोग हैं जो मेरी राय में समाज के लिए अभी सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं।

वामपंथ के बारे में कुछ शब्द:
मैं वामपंथ-विरोधी नहीं हूँ। मैं मानता हूँ की हालिया मानव इतिहास के सबसे उपयोगी राजनितिक और आर्थिक विश्लेषण और वर्ग संघर्ष में, अंधविश्वास के ख़िलाफ़ और पूँजीवाद की घटिया विचारधाराओं के ख़िलाफ़ वामपंथ के सकारात्मक योगदान को निश्चित तौर पर भविष्य में होने वाले मानव विचार के विकास के विस्तार में दर्ज किया जायेगा। मगर वामपंथियों के साथ समस्या यह है कि वे दावा करते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectic materialism) एक विज्ञान है, भले ही materialistic ontology को एक सदी पहले फिजिक्स द्वारा त्याग दिया गया हो। इसके अलावा, हैसेनबर्ग और quantum revolution द्वारा materialistic ontology और strict determinism दोनों की समाप्ति से पहले और आइंस्टीन की सापेक्षता की क्रांति (revolution of relativity) द्वारा ‘Space और time’ को स्वतंत्र अवधारणाओं के तौर पर समाप्त करने से पहले ही ये मान लिया गया था की मानव इतिहास के प्रति मार्क्सिस्ट नज़रिया रूढ़िवादी और संकीर्ण था, क्यूंकि ये deterministic Newtonian mechanics की सरलता से प्रभावित था जिसने उस विज्ञान को जन्म दिया जिसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectic materialism) कहा गया।

सटीक वैज्ञानिक ज्ञान के इस ग़लत आत्मविश्वास ने उस अधिनायकवाद को जन्म दिया जिसे हमने कुछ वामपंथी देशों में देखा, ठीक उसी तरह जैसे आज कुछ मुस्लिम देशों में प्रशासन धर्म के नियमों को अपने नागरिकों पर जबरन थोपना चाहता है, मानो ये नियम ही अंतिम सत्य हैं।

इसके अलावा, एक बुनियादी तौर पर सामाजिक सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार के नाम पर नकारने की इस सनक से वो समस्याएं पैदा होती हैं जिसके फ़लस्वरूप वामपंथी उत्पीड़ित जाति या नस्ल या धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा विरोध को प्रतिक्रियावादी पहचान की राजनीति (reactionary identity politics) क़रार देते हैं और ये दावा करते हैं की ये मानव इतिहास के वैज्ञानिक क्रम के विपरीत है। इसी के आधार पर वो क्रांतिकारी धार्मिक जज़्बे को बुर्जुआ भ्रम कह कर नकारते हैं।

मैं ख़ुद को कैसे देखता हूं ये उसका एक संक्षिप्त विवरण है, अधिक जानकारी और अनुभव के साथ बहुत सी चीज़ें बदलेंगी मगर ऊपर मैंने अपने राजनीतिक और धार्मिक सोच के बुनियादी ढांचे को उकेरा है। अब मैं पाठक से अनुरोध करता हूं के वो स्वयं मूल्यांकन करें और बताएं की मैं कौन हूं। अंत में मैं आपसे दो शेर कह कर विदा लेना चाहूंगा, एक रूमी द्वारा कहा गया –

ना अज़ हिंदम, ना अज़ चीनम
ना अज़ बुलगार-ओ-सक्सीनम ,

ना अज़ मुल्के इराक़ीनम, ना अज़ ख़ाक-ए-खुरासानम ।

ना मैं हिंद (भारत) से हूं, ना चीन से, ना ही बुल्गारिया से ना सकसीन (तुर्कमेनिस्तान और रूस का एक हिस्सा) से

मैं इराक़ देश से नहीं हूं, और न ही मैं खुरासन की ज़मीन से हूं
(खुरासान – आधुनिक उत्तर-पूर्वी ईरान, दक्षिणी तुर्कमेनिस्तान, और उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक विशाल भूभाग)

और एक दूसरा शेर इक़बाल द्वारा जिन्होने अपने गुरु रूमी का अनुसरण करते हुऐ 6 सौ साल बाद उर्दू में इसी विचार को व्यक्त इस तरह किया –

दरवेश-ए-ख़ुदा मस्त न शर्की है न गर्बी ,
घर मेरा न दिल्ली, न सफ्फहन ना समरकंद ।

ईश्वर की आराधना में लगा फ़कीर न पूरब का होता है न पश्चिम का, इसी तरह मेरा घर न दिल्ली है, न इशफहन ना ही समरकंद

सफ्फहन- मध्य ईरान का एक शहर जो इशफहन नाम से मशहूर है।

समरकंद – दक्षिण-पूर्वी उज़्बेकिस्तान का एक शहर