बकरीद का त्योहार और इसका सन्देश

उसने कहा – “तुझे तेरा बाप क़त्ल करने के इरादे से ले जा रहा है” मगर उसने उसे झिड़क दिया। शैतान मायूस होकर चला गया।

कंधे पर रस्सी, तेज छुरी और सफर के सामान के साथ एक बाप अपने बेटे को ईश्वर के आदेशानुसार कुर्बान करने के लिए जा रहा था। उसने रास्ते में अपने बेटे को ईश्वर के आदेश के बारे में बताया। डरने और इनकार करने के बजाय बेटा खुश हो गया और अपने बाप को कहने लगा कि आप ईश्वर की बात जरूर मानें।

फिर वह लोग उस जगह पहुंचे जहां कुर्बानी देनी थी। बेटा कहता है आप मेरे हाथ पैर बाँध दें, आंखों पर पट्टी बांध दें, मुझे उल्टा लिटा दें ताकि आपको मुझ पर रहम ना आए। कहीं ऐसा ना हो कि आप पुत्र प्रेम में ईश्वरीय आदेश की अवहेलना कर बैठें। पिता बेटे की सलाह मान लेता है और छुरी तेज़ करता है। बेटे को उल्टा-लिटाकर अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर वो छुरी चलाता है। जब पट्टी हटाकर देखता है तो उसे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं होता। बेटा बगल में खड़ा मुस्कुरा रहा होता है और बेटे की जगह एक दुम्बा की क़ुरबानी हो जाती है।

इस्लामी मान्यता अनुसार अल्लाह ने इब्राहीम अलै० की आज़माइश के लिए ये आदेश दिया था और जब उसने पाया कि इब्राहीम अलै० आज़माइश में पक्के साबित हुए तो उन्हौने जिब्रईल नामक फ़रिश्ते को भेजकर उसके बेटे को हटाकर उसकी जगह एक दुम्बा (Fat-tailed sheep) रख दिया और इस तरह बेटे की जगह दुम्बे की क़ुरबानी हुई और इस्माईल अलै० ज़िंदा रह गए। इसी घटना से बक़रीद के त्यौहार की शुरुआत हुई। हर साल इसे ईदुल अज़हा या बक़रीद के नाम से मनाया जाता है। इस दिन मुसलमान अपने प्यारे जानवरों की क़ुरबानी करते है और उसके गोश्त का एक बड़ा भाग गरीबों में और उसके बाद अपने रिश्तेदारों में बांटते है।

मगर बक़रीद का सन्देश क्या है ? इसके लिए एक बार फिर याद कीजिये बाप और बेटे का वो वाकिया जिसे ऊपर ज़िक्र कर दिया गया है।सोचिये –

आखिर वह कौन सी चीज थी जो पिता को पुत्र की क़ुरबानी देने के लिए ना सिर्फ तैयार कर रही थी बल्कि दिल में सुकून और भुजाओं में सामर्थ्य भी प्रदान कर रही थी।

आखिर वह कौन सी चीज थी जो पुत्र को न सिर्फ प्राण मोह से बचा रही थी आपितु पितृप्रेम संग मानवीय संवेदनाओं को भी जागृत कर रही थी।

वह चीज थी विश्वास। परमात्मा पर अटल तार्किक विश्वास। जी हां परमात्मा पर विश्वास कि वह जो करता है अच्छा ही करता है, वही अन्नत ज्ञान का स्रोत है, वही परमज्ञानी और सर्व ज्ञाता है। उसने अगर सृष्टि की रचना की है तो इस पर उसका संपूर्ण अधिकार है। यदि उसने हमें जीवन दिया है तो इसे लेने का भी उसे पूरा अधिकार है। ये सृष्टि जिसे हम अपनी सीमित बुद्धि से हजारों लाखों सालों की रिसर्च बाद भी पूरी तरह से समझ नहीं पाये है तो भला जिसने इस सृष्टि की रचना की है उसकी योजना को पूरी तरह समझ पाना कैसे हमारे बस में है?

अतः यदि उसका आदेश हमारी सीमित मानव बुद्धि को अटपटा भी लगे तो भी हमें उसे मान लेना चाहिए। ऐसी ही कई बातें थी जो उन दोनों के मन मस्तिष्क में समृद्धि को पा रही थी।

अंततः उनके इस विश्वास ने उनको परमात्मा का प्रिय बना दिया और उनको खरोच तक नहीं आई क्योंकि ईश्वर ने उन्हें बचा लिया।

इस घटना से मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय नीति बनी कि चाहे जैसी भी स्थिति हो ,चाहे कितनी भी बड़ी कुर्बानी देनी पड़े मगर यदि ईश्वर का कोई आदेश आये तो ईश्वरीय आदेश की अवहेलना नहीं करनी है। बल्कि ईश्वर के आदेशों के आगे नतमस्तक हो जाना है। हाँ मगर जिसे ईश्वर समझ कर उसकी बात मानने को तैयार हों, वो ईश्वर है भी या नहीं इसको तर्क की कसौटी पर देखा जाए। और यदि वो तार्किक रूप से सिद्ध हो जाए तो ही उसकी हर बात पर लब्बैक कहा जाए।

माना जाता है कि बकरीद का त्यौहार भी इसी संदेश को ध्यान में रखकर मनाए जाने का आदेश है। जैसा कि इब्राहीम अलै० के बारें में क़ुरआन में साफ़ साफ़ ज़िक्र है कि किस तरह उन्हौने लोगों को तर्क शक्ति द्वारा ईश्वर को पहचानना सिखाया। जैसा कि पवित्र कुरान सूरतुल अनाम में आयत 74 से 83 तक में इब्राहीम अलै० द्वारा दिए जाने वाले तर्कों के बारें में बयान किया गया है।

“तो जब उन पर रात की तारीक़ी (अंधेरा) छा गयी तो एक सितारे को देखा तो दफअतन बोल उठे (हाए क्या) यही मेरा ख़ुदा है फिर जब वह डूब गया तो कहने लगे ग़ुरुब (डूब) हो जाने वाली चीज़ को तो मै (ख़ुदा बनाना) पसन्द नहीं करता। फिर जब चाँद को जगमगाता हुआ देखा तो बोल उठे (क्या) यही मेरा ख़ुदा है फिर जब वह भी ग़ुरुब हो गया तो कहने लगे कि अगर (कहीं) मेरा (असली) परवरदिगार मेरी हिदायत न करता तो मैं ज़रुर गुमराह लोगों में हो जाता। फिर जब सूरज को दमकता हुआ देखा तो कहने लगे (क्या) यही मेरा ख़ुदा है ये तो सबसे बड़ा (भी) है फिर जब ये भी ग़ुरुब हो गया तो कहने लगे ऐ मेरी क़ौम जिन-जिन चीज़ों को तुम लोग (ख़ुदा का) शरीक बनाते हो उनसे मैं बेज़ार (disassociated) हूँ।…..” (पूरा पढ़ने के लिए देखें ;- क़ुरआन 6:74-83)

कुर्बानी के बारें में क़ुरआन में सुरतुल हज आयत संख्या 37 में कहा गया है:-

“अल्लाह को कुर्बानी के गोश्त नहीं पहुंचते ना उनके खून बल्कि उसे तुम्हारे दिल की परहेजगारी पहुंचती है।”

अर्थात ईश्वर को क़ुर्बान हुए जानवरों के गोश्त से नहीं बल्कि ईश्वर में हमारे अटल विश्वास और ईश्वर के आदेशों को मानने की हमारी प्रतिबद्धता से मतलब होता है।

मगर अफसोस! हकीकत तो यही है कि हर साल बकरीद मनाने के बावजूद हम पूरी तरह से सभी ईश्वरीय आदेशों का पालन नहीं करते। हमें चाहिए की हम ईश्वर के प्रत्येक आदेश मानें।

  • यदि सफाई को आधा ईमान कहा गया है तो हमें स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए और गन्दगी को फैलाने से बचना चाहिए।
  • यदि ईश्वर का आदेश है कि दूसरों के आराध्य को बुरा भला ना कहो तो हमें दूसरे धर्म की मान्यताओं के खिलाफ भी बोलने से बचना चाहिए। उनकी आस्था को हर संभव ठेस पहुँचाने से बचना चाहिए।
  • यदि ईश्वर का आदेश है कि बेगुनाहों को ना मारो तो हमें नाजायज़ हिंसा से भी बचना चाहिए।
  • यदि ईश्वर का आदेश है कि पड़ोसी का हक अदा करो तो हमें सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए, एक दुसरे को मदद पहुंचते हुए एक अच्छी सामाजिक संरचना को भी बढ़ावा देना चाहिए।
  • यदि ईश्वर का आदेश है कि हर मामले में केवल इश्वरीय विधान के अनुसार ही फैसला करना उचित व आवश्यक है तो हमें उन्हीं के आदेशों निर्देशों को सर्वोच्च मानकर चलना चाहिए तथा उन सभी व्यवस्थाओं का विरोध करना चाहिए जो संसार मे भ्रष्टाचार फैलाते है और कुतर्क का सहारा लेकर आमजन में अशांति तथा वैमनस्य फैलाते है।

कुलमिलाकर कहें तो बक़रीद का त्यौहार हमें निम्न बातों के लिए विशेष रूप से प्रेरित करता है ;-

1. तार्किक बनिए और तार्किक ढंग से अल्लाह पर विश्वास कीजिये जैसा कि इब्राहीम अलै० ने किया – तभी जाकर आज़माइश में सफल हो पाएंगे।

2. ईश्वरीय आदेश को मानने में हमेशा ही भलाई छुपी होती है। भले ही थोड़ी देर के लिए हमारे सिमित बुद्धि से वो हमें अटपटा अथवा अनुचित लगे परन्तु ईश्वरीय आदेश में खैर(अच्छाई) छुपी होती है।

3. तर्क ज़रूरी है क्यूंकि – तर्क से ईश्वर में विश्वास बढ़ता है, विश्वास से ईश्वर का आदेश मानना आसान होता है, ईश्वरीय आदेश को मानने से त्याग की भावना बलवती होती है, तथा निः स्वार्थभाव से किये गये त्याग से ईश्वर प्रसन्न होता है, और ईश्वर प्रसन्न हों तो हर परिस्थिति में सफलता और आसानी हाथ लगती है।

अतः हमें चाहिए कि उपरोक्त सभी बातों पर गौर करते हुए। ईश्वर द्वारा निर्देशित सभी बातों पर पूरे मन से त्याग की भावना के साथ बिना सांसारिक नफा-नुकसान सोचे अवश्य अमल करना चाहिए तभी हमारी कुर्बानी क़ुबूल होगी और हमारा बकरीद मनाना भी सार्थक साबित होगा। आप सभी भाइयों-बहनों को बक़रीद के पावन पर्व की शुभकामनायें।

धन्यवाद ! 

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मुजीबुर्रहमान एक स्वतंत्र पत्रकार है जो विभिन्न मुद्दों पर लिखते है। विशेष रुचि - विश्व राजनीति तथा वैचारिक मुद्दे.