मुर्शीद कमाल
देश के सभी शैक्षिक संस्थानों में जामिया मिल्लिया इस्लामिया का अस्थान अद्वितीय है। अद्वितीय इस लिये क्योंकि जामिया की स्थापना सिर्फ़ शिक्षा प्राप्त करने के लिये नहीं की गयी थी, और ना ही जामिया की शिक्षा मात्र रोज़गार प्राप्त करने के लिये थी बल्कि जामिया की स्थापना शिक्षा बराये जीवन के उद्देश से हुई थी, और यह अद्वितीय इस लिये भी है क्योंकि देश के दूसरे शैक्षिक संस्थानों की तरह जामिया का संस्थापक कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं है। असहयोग आंदोलन और खिलाफ़त अांदोलन के कोख से जन्मे इस अदभुत शैक्षिक संस्थान के वैचारिक स्थापक महात्मा गांधी थे तो उनके सपनों में हकीक़त का रंग भरने के लिये कुदरत ने मौलाना मोहम्मद अली जौहर, हकीम अजमल ख़ां, डॉक्टर मुख़्तार अहमद अंसारी और अबदुल मजीद ख़्वाजा जैसे नामवर लोगों का चयन कर लिया था, और फिर जब जामिया पर सख़्त वक़्त अा पड़ा और असहयोग अांदोलन की समाप्ति पर कुछ तबकों द्वारा इसके अस्तित्व को ही बेमकसद बता कर जामिया को बंद करने की वकालत शुरू की गयी तो डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, डॉक्टर अाबिद हुसैन और प्रोफेसर मोहम्मद मुजीब साहब की बहूमूल्य सेवाओं ने जामिया को सहारा दिया।
ये 20 अक्तूबर 1920 की तारीख़ थी। असहयोग आंदोलन पर समर्थन हासिल करने और उस पर अमल करवाने के लिये अलीगढ़ विश्वविद्दालय के छात्रों के अनुरोध पर महात्मा गांधी और मौलाना मोहम्मद अली जौहर अलीगढ़ आये और यूनियन हॉल में छात्रों से ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण और आर्थिक मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों के बायकॉट की अपील की। ये नेता ये चाहते थे कि अलीगढ़ सरकारी संरक्षणा से बरी होने का एेलान कर दे। अलीगढ़ के छात्रों और अध्यापकों का इस सिलसिले में रवैय्या संतोषजनक था, लेकिन सरकार समर्थक तबके ने इसका विरोध शुरू कर दिया।यही नहीं बल्कि महात्मा गांधी और दूसरे देश भक्तों का मज़ाक उड़ाना शूरू कर दिया और एक बिल पास कर के इस अांदोलन के विरोध की घोषणा कर दी। ज़ाकिर साहब जो उन दिनों अर्थ शास्त्र में एम.ए करने के बाद नये नये लेक्चरर के ओहदे पर नियुक्त हुए थे उस दिन अपने चिकित्सकीय परीक्षण के लिये दिल्ली गये हुये थे। दूसरे दिन जब वो अलीगढ़ वापिस आये तो उन्हें गांधी जी के साथ हुये बरताव पर बड़ा दुख हुआ। दूसरे दिन छात्रों ने यूनियन हॉल में फिर सभा की। ज़ाकिर साहब ने इस सभा में शिरकत की। अली बंधुओं ने इस में बहूत ही मार्मिक भाषण दिये। भाषण का असर ये हुआ कि छात्रों की भीड़ बेक़ाबू हो गयी। जाकिर साहब फूट फूट कर रोने लगे। जाकिर साहब के पूराने साथी रशीद अहमद सिद्दीक़ी बताते हैं कि भीड़ बेकाबू हो गयी थी, उन्हें (जाकिर साहब) खींच कर भीड़ से बाहर लाया।पूछा जाकिर साहब ये क्या हुआ? कहने लगे रशीद साहब अलविदा! जिंदगी का आरम्भ अच्छा हुआ अब समापन के अच्छे होने की प्रार्थना करियेगा। मेरे पास मेरा जो कुछ है उसे यूसुफ और महमूद के हवाले कर दीजियेगा! कालेज के कागजात उन्हें वापिस भेज दीजियेगा। मैंने कहा मुर्शीद! इस अांदोलन के बारे में बहूत बार बातचीत हुई लेकिन आप कभी इसके समर्थक नहीं थे,अब आखिर क्या हुआ? कहने लगे “आंदोलन सही हो या ग़लत उसके बारे में यकीन के साथ कुछ कहना ना मुमकिन भी है और वक्त से पहले भी! मुझे जिस सोच ने मजबूर किया वो ये थी कि कहने वाले ये ना कहने लगें कि अलीगढ़ वालों ने उस आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया जिसमें मुसीबतों का सामना करना पड़ता! मुझे तो ये बतलाना है कि अलीगढ़ के सपूत बज़्म और रज़म (सुख और दुख) दोनों की जिम्मेदारी उठा सकते हैं, आप मुझे ना रोकें, पाँसा फेंका जा चुका है, अब तो अंजाम जो भी हो अच्छा खुदा हाफिज़!”
अब जबकि छात्रों की एक अच्छी संख्या ने अपनी अलग पहचान कायम करते हुये अलीगढ़ से ताल्लुक़ तोड़ लिया तो फिर उनके लिये एक दूसरे संस्थान की ज़रूरत महसूस की गयी।
29 अक्तूबर को जुमा की नमाज़ के बाद मोहम्मडन एंगलो ओरियंटल कॉलेज की मस्जिद में एक अारंभिक सभा में शेखुल हिंद मौलाना महमूद हसन के हाथों जामिया मिल्लिया इस्लामिया की बुनियाद रखी गयी। समारोह में अलीगढ़ कॉलेज को हमेशा के लिये अलविदा कह कर एक नये भविष्य की तलाश में आए करीब 300 छात्र एवं अध्यापकों ने शिरकत की। बुनियाद भी महज औपचारिक और प्रतीकात्मक थी, ना किसी भवन का शिलान्यास, ना किसी संस्था का उदघाटन, ना किसी आर्थिक सहायता की उम्मीद,ना कोई उपकरण ना ही कोई सामानـ लेकिन प्रतिबद्धता,त्याग और कुरबानी का एैसा जुनून कि कुदरत भी हैरान। खुलासा ये कि जामिया के स्थापना की पूरी योजना पहली दृष्टि में आसमान में कायम काल्पनिक योजना लगती थी। लेकिन जो पवित्र हस्तियां इस इंकिलाबी मनसूबे को वैवहारिक आकार देने के लिये इकठ्ठा हुई थीं वो कोई साधारण हस्तियाँ नहीं थीं, उनके महत्वकांक्षा के पीछे एैसी खु़दाई ताक़त के होने का इहसास होता था जिसके बल पर पहाड़ों को अपनी जगह से खिसकने पर मजबूर किया जा सकता था। बोरियों पर बैठने वाले ये लोग दुनिया के आराम के मुकाबले में दुनिया की आजमाईशों को प्राथमिकता देते थे।
जामिया के स्थापकों के लेख और भाषणों ने जामिया की स्थापना के उद्देश्यों को स्पष्ट कर दिया था। वो जामिया को एक एैसा शैक्षिक संस्थान बल्कि प्रयोगशाला बनाना चाहते थे जहां विचारों की आजादी हो, इंसानी मन गुलामी और शत्रुता से आजाद हो, जहां इस्लामी सभ्यता की सुखद हवाएं देश भक्ति और राष्ट्रीयता का पैगाम सुनाती हों, जहां की हवाओं में इंसानी भाईचारगी,सहिष्णुता और देशभक्ति रच बस गयी हो और जहां इस्लामी अक़ीदे और विचार संयुक्त भारतीय राष्ट्रीयता से संगत हों।
करीब 4 सालों तक जामिया मिल्लिया अलीगढ़ में किराये की कोठियों और अस्थायी तम्बुओं से राष्ट्रीयता, मानवता, सहिष्णुता और आजादी के जज़्बे का पाठ देती रही और फिर कुछ आर्थिक व प्रशासनिक कारणों से 1925 में दिल्ली स्थानांतरित कर दी गयी। आर्थिक तंगी स्थापना के पहले दिन से ही जामिया के मुक़द्दर में रही। कुदरत ने भी जामिया के स्थापकों की परीक्षा लेने में कभी गुरेज नहीं किया। लेकिन जामिया की खुश किस्मती ये रही कि इतिहास के हर नाजुक मोड़ पर जामिया को एैसे सब्र व शुक्र करने वालों की टीम मिलती रही जिनकी कलंदरी और बोरिया नशीनी देख कर कुदरत को भी प्यार आता था। वो जितनी ज़्यादा मुसीबतों का शिकार होते उतना ही ज्यादा मेहनत और हिम्मत के साथ अपने काम में लग जाते।
अलीगढ़ से दिल्ली स्थानांतरण भी जामिया को मुशकिलों से नजात ना दिला पाई। अभी जामिया अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में लगी थी कि 1928 में हकीम अजमल खान का देहांत हो गया। हकीम साहब का देहांत जामिया के लिये किसी बड़ी त्रासदी से कम ना था। आर्थिक मुशकिलों का पहाड़ था जो टूट पड़ा था। हकीम साहब जामिया के औपचारिक कूलपति मात्र नहीं थे, बल्कि जामिया उनकी जिंदगी का मकसद थी जिसे सालों उन्होंने अपने जिगर के खून से सींचा था। जब आर्थिक तंगी का शिकार जामिया बंद होने के कगार पर पहुंच जाता तब हकीम साहब एक बेल आऊट पैकेज के साथ सामने आ जाते। वह ना सिर्फ़ अपने निजी पैसों से जामिया की मदद करते बल्कि देश के विभिन्न दूरदराज़ क्षेत्रों का दौरा करके जामिया के लिये फंड इकठ्ठा करते। कुदरत एक बार फिर जामिया के चाहने वालों की परीक्षा ले रही थी, लेकिन ये महान हस्तियां कब झुकने और डगमगाने वाली थीं सो इस परीक्षा में भी खरी उतरीं। डाक्टर जाकिर हुसैन, डाक्टर आबिद हुसैन और प्रोफ़ेसर मोहम्मद मुजीब साहब उन दिनों जर्मनी से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद भारत वापिस आ चुके थे। जामिया की जिम्मेदारी अब इन्हीं तीन लोगों के कांधों पर आ पड़ी। एक एतिहासिक फैसला ले लिया गया। “अंजुमन तालीम ए मिल्ली” की स्थापना की गयी और उससे जुड़े लोगों ने ये प्रण लिया कि जामिया को बंद नहीं होने देंगें, 20 सालों तक जामिया नहीं छोड़ेंगें और 150 रूपये मासिक से ज़्यादा तनख्वाह नहीं लेंगें। इन तमाम मोड़ पर जामिया के जिम्मेदारों को गांधी जी की रहनुमाई और संरक्षण हासिल रही। गांधी जी किसी भी कीमत पर जामिया को बंद करने के हक़ में नहीं थे। जामिया गांधी जी के सपनों की ताबीर थी और उन्होंने जामिया से बहूत सारी उम्मीदें जोड़ रखी थीं। वो ना सिर्फ़ इस शैक्षिक संस्थान के वैचारिक स्थापक थे बल्कि सारी उम्र जामिया की जरूरतों का इहसास करते रहे।
इतिहास के काँटेदार पथ से गुज़रती हुई जामिया आज एक भव्य राष्ट्रीय विश्वविद्धालय का रूप धारण कर चुकी है। तंगी और संसाधनों की क़िल्लत की वो यादें अब सिर्फ़ इतिहास की किताबों में महफूज हैं। बेरंग शेरवानियों और पेवंद लगे पायजामों की जगह अब बेहतरीन वस्त्रों और बरानडेड जूतों ने ले ली है। जामिया के अध्यापक और स्टाफ़ अब देश के किसी भी शैक्षिक संस्थान से बढ़कर या बराबर तनख्वाह पाते हैं। लेकिन देखना ये होगा कि इस परिवर्तन ने जामिया को कहीं उसके वजूद के मकसद से भटका तो नहीं दिया है? क्या हम अपने बच्चों के चरित्र निर्माण करके और उन्हें मानसिक प्रशिक्षण दे कर देश व कौम की वही सेवा अंजाम दे रहे हैं जो जामिया के स्थापकों का सपना था? इंसानी मूल्यों का वही उच्च गुणवत्ता आज भी कायम है जो जामिया की विशेषता थी? त्याग व बलिदान की वही मिसालें आज भी दी जाती हैं जो कभी जामिया का सरमाया हुआ करता था? फूलों की भीनी भीनी खुशबुओं से उठते हुए हवा के ख़ुशगवार झोंके क्या आज भी एक नयी सुबह का संदेश देते हैं? या फिर जामिया का शानदार अतीत इसके हाल को मूंह चिढ़ा रहा है? जामिया के कूलपति, छात्रों और सभी जिम्मेदारों को इन सवालों के जवाब ढूंढना इस स्थापना दिवस पर जामिया के अस्थापकों को बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया छात्र संघ के पूर्व उपाध्यक्ष और इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, नई दिल्ली की मिडल ईस्ट शाखा के संयोजक हैं.)
मुर्शीद कमाल लेखक।