बीबीसी रँग और नस्ल के आधार पर भेदभाव करती है: तारिक अनवर चम्पारणी का सटीक विश्लेषण

तारिक अनवर चम्पारणी

क्या आपने कभी मोटी, नाटी, काली, कथित तौर पर भद्दी नैन नक्श वाली लड़कियों को बीबीसी हिंदी के स्क्रीन पर देखा है? आप ने नहीं देखा होगा। अगर देखा भी होगा तो कभी कभार ही, मजबूरी में। कभी कभार दिखने वाली ये कथित तौर पर कुरुप और भद्दी लड़कियां एकाएक स्क्रीन से गायब क्यों हो गई थी? दरअसल एक बार मंथली मीटिंग में बीबीसी हिंदी विभाग के संपादक मुकेश शर्मा ने यह एलान किया कि अब से स्क्रीन पर वही आएगा जो प्रेजेंटेबल फेस होगा यानी कथित तौर पर सुंदर लड़किया। फिर क्या था कथित तौर पर भद्दी और लंबाई में कम कमलेश मठेनी से फेसबुक लाइव के मौके छीन ली गई। कथित तौर पर भद्दी और मोटी दिखने वाली सिंधुवासिनी त्रिपाठी के लिए वीडियो के लिए अवसर बंद हो गए। किसी की जी हुजूरी न करने वाली गुरप्रीत कौर के वीडियो के रास्ते हमेशा के लिए बंद हो गए। सुर्यांशी टैलेंटेड जरूर है लेकिन वह सम्पादकों की जीहुजूरी नहीं करती है। इसलिए उससे भी वीडियो के सभी मौके छीन लिए गए और उसे एफएम विभाग में सड़ने को छोड़ दिया गया। अब मीना कोटवाल एक तो वह काली दिखती है और ऊपर से दलित है इसलिए मौके का कोई सवाल ही नहीं उठता था। खैर, इन सब का पत्ता कटा तो फिर किसको मौका मिला? कथित तौर पर बेहद खूबसूरत सर्वप्रिया सांगवान, प्रज्ञा सिंह को मौक़ा मिला। मैनेजरों की प्राथमिकता की सूची में पहला नाम प्रज्ञा सिंह का था। प्रज्ञा बिहार के गया से है और भूमिहार या राजपूत जाति से आती हैं। वह पहले एनडीटीवी में थीं, शायद ट्रेनी रही होंगी। जैसा मेरे स्रोत बताते हैं, वो 500 शब्दों की कॉपी लिख या फिर ट्रांसलेट भी नहीं कर पाती हैं। लेकिन उनको एकलौती दलित पत्रकार की तरह भेदभाव नहीं झेलना पड़ा और नही उनके परफॉर्मेंस पर सवाल उठाए गए। प्रज्ञा जी का बड़े ही आसानी से प्रोबेशन पूरा हुआ, कंफर्म हो गईं। आसानी और बहुत आराम की नौकरी चल रही है। क्यों, क्योंकि वो सवर्ण जाति से हैं और कथित तौर पर बेहद खूबसूरत हैं। बीबीसी के लिए यही इनकी योग्यता का पैमाना है। प्रज्ञा को रातों-रात हिंदी के संपादक ने उन्हें ‘बीबीसी हिंदी क्लिक’ कार्यक्रम का एंकर चुन लिया। वह प्रैक्टिस भी कर रही थीं। अचानक कार्यक्रम के लॉन्च से पहले बीबीसी लंदन से कुछ अंग्रेज पदाधिकारी आए। उन्होंने देखा कि प्रज्ञा का परफॉर्मेंस बहुत अच्छा नहीं था। वह ठीक से कार्यक्रम नहीं कर पा रही थी। बीबीसी के अधिकारियों ने ओपन ऑडिशन की घोषणा किया। इन हाउस जितने भी लोग थे, जो एंकर बनना चाहते थे, उन्होंने ऑडिशन के लिए अप्लाय किया। सभी लड़कियों का ऑडिशन हुआ। उस ऑडिशन में एनडीटीवी के रवीश कुमार की प्रिय और कथित तौर पर ‘महान’ पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान भी शामिल थीं। सबका ऑडिशन लिया गया। परिणाम क्या हुआ? न प्रज्ञा सिंह उस ऑडिशन में पास हो पाई और न ही महान पत्रकार सर्वप्रिया जी। फिर पास कौन हुआ? पास हुई एक टैलेंटेड लड़की सुर्यांशी। अब क्या था, अंग्रेजों से फैसले को हिंदी के संपादक कैसे बदलते, वो तो अपना रौब दलित और पिछड़े पत्रकारों पर दिखाते हैं। उनके काम का हिसाब लेते हैं।

इस बात से खफा संपादक जी उनदोंनों सवर्ण पत्रकार (प्रज्ञा और रवीश की प्रिय सर्वप्रिया) को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया। फिर क्या किया? उन्होंने सर्वप्रिया जी को बीबीसी के हर इवेंट(पटना भी आयी थी) में एंकर बनाया। चाहे वो इवेंट में शामिल गेस्ट से सवाल अच्छी कर रही हों या न कर रही हों, चाहे वो अटक रही हों, चाहे वो बीबीसी से स्टैंडर्ट की बातें कर रही हों या ना कर रही हों मग़र उन्हें सुधार का हर मौका दिया गया। उनका कोई भी परफॉर्मेंस रिव्यू नहीं हुआ और नही उनकी कभी भरी सभा में आलोचना हुई। हर वक्त उन्हें प्रशंसा हासिल हुई। चाहे वह दूसरों की कॉपी चुरा कर वीडियो ही क्यों न बना ले। चाहे वह बेतुके सवाल ही क्यों न पूछ ले? उन्हें संपादक मंडली से स्नेह मिलता रहा भले चाहे वह गलत करे या सही। इसका बाकी के महिला पत्रकारों ने जोरदार विरोध भी किया और सवाल किया। प्रबंधन ने उत्तर दिया और कहा कि “हर कोई हर काम नहीं कर सकता है।“ संपादक मुकेश शर्मा जी ने इतना कह कर बिना किसी को सुधार का मौका दिए अयोग्य करार दे दिया। यह था उनका भेदभाव और महिला विरोधी फरमान।

खैर, क्या ऐसे मौके कथित रूप से सुंदर नहीं दिखने वाली कमलेश मठेनी या फिर सिंधुवासिनी को नसीब हुआ। नहीं, बिलकुल भी नहीं। बीबीसी में और भी कई काले और साँवले चेहरे हैं। क्या उनको कोई ऐसा मौका मिला? नहीं, बिलकुल नही। तो फिर इतना होने के बाद कथित तौर से बेहद खूबसूरत प्रज्ञा जी का क्या हुआ? कुछ नहीं, वह ऑनलाइन में लिख नहीं पाती है। वह ट्रांसलेशन कर नहीं पाती है। फिर भी वह बीबीसी में बनी रहे, इसके लिए उन्हें दूसरे मौके उपलब्ध कराए गए। कैसे मौके? मसलन इंडिया न्यूज पर आने वाले कार्यक्रम ‘बीबीसी दुनिया’ में ‘राउंड अप न्यूज’ में उन्हें मौका दिया गया। उन्हें इलेक्शन काउंटिंग के दिन लाइव कार्यक्रम के दौरान ऑन स्क्रीन सोशल मीडिया पोस्ट पढने का मौका दिया गया। फिर वही सवाल है, क्या कथित रूप से भद्दी, मोटी, नाटी, काली दिखने वाली पत्रकारों को ये मौका मिला? बिलकुल भी नहीं।

रंग रूप, जाति, धर्म से परे बीबीसी सबको बराबर मौका देने का दावा करती है। उनका यह दावा सार्वजनिक है, पर बीबीबी के संपादक भारत में इसे लागू करेंगे? अभी तक तो नहीं किया गया, आगे ब्राह्मणवादी ब्रॉडकास्ट कॉर्पोरेशन से उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। बीबीसी के आलेखों पर मत जाइए। महिलाओं के बारे में की गई महान बातों पर मत जाइए। रंगभेद, जातिभेद, ऊंच-नीच वाले आलेखों पर मत जाइए। बीबीसी के अंदर भी वही होता है जो बाहर होता है। ब्राह्मणवादी सोच के लोग अपने पंसदीदा लोगों को मौका देते हैं। कथित रूप से बेहद खूबसूरत दिखने वाले को मौका देते हैं। काली, कथित रूप से बेहद भद्दी दिखने वाली लड़कियों को मौका तक नहीं दिया जाता। क्या यह बीबीसी का महिला विरोधी चेहरा नहीं है? बॉडी शेमिंग, ऊंच नीच और काले-गोरे की बात करने वाला बीबीसी इंडिया क्या महिला विरोधी फैसले नहीं ले रहा है?

कोई गोरी होगी या नहीं, कोई पतली या सुडौल होगी या नहीं, क्या यह किसी महिला के हाथ में है? जब यह सबकुछ उनके हाथ में नहीं है तो फिर उनके साथ बीबीसी भेदभाव क्यों कर रही है? उनसे मौके छीने क्यों जा रहे है? क्या इसका जवाब भूमिहार मुकेश शर्मा, मैथिल ब्राह्मण रूपा झा और कायस्थ राजेश प्रियदर्शी देंगे?

अरे! महिलाकर्मियों को मौका देने की बात तो दूर जब ये महिलाकर्मी वीमेन इंगेजमेंट के लिए वीडियो बनाने किसी महिला कॉलेज जाती हैं तो संपादक लोग इन्हें खूबसूरत और सेक्सी दिखने वाली लड़कियों के बाइट लेने का आदेश दिया जाता है। महिला पत्रकारों को मजबूरन यह करना पड़ता है। इससे खफा एक बार बीबीसी की महिलाकर्मी ने खुद के संस्था के खिलाफ फेसबुक पर पोस्ट भी लिखा था। उस पोस्ट पर समान पीड़ा झेल रही दूसरे महिला पत्रकार ने कमेंट भी किया। बाद में दोनों महिला पत्रकारों को ब्राह्मवादी मानसिकता के मुकेश शर्मा ने बुला कर डांटा और नौकरी से निकालने की धमकी दी और पोस्ट डिलीट करवाया। #NidarLader का कैंपने चलाने वाली बीबीसी की महिला पत्रकारों, आप कब निडर हो कर इन सभी भेदभाव के खिलाफ हल्ला बोलेंगी? क्या सारी नैतिकता आलेखों में ही लिखेंगे या फिर उसे खुद पर लागू करेंगी? ज्ञान देना आसान है बीबीसी, उसे खुद पर लागू करना बहुत मुश्किल।

जब से सोशल मीडिया पर बीबीसी के जातिवादी चेहरे के खुलासे हो रहे हैं, तब से कथित रूप से भद्दी दिखने वाली इन महिलाओं को कुछ मौका जरुर मिलने लगा है, सिंधुवासिनी, सुर्यांशी को वीडियो का मौका दिया जा रहा है ताकि संपादक लोग अपनी नौकरी बचा सके। लंदन के अंग्रेजों के सामने खुद को साबित कर सके। प्रबंधन को मजबूरन यह सबकुछ करना पड़ रहा है। यदि आपको मेरी यह बातें झूठी लग रही है तब आप पिछले तीन-चार महीनों तक का बीबीसी हिंदी वेबसाइट का दौरा करें।

दोस्तों! यह हमारी लड़ाई की जीत है। जब तक हम इस ब्राह्मण ब्रॉडकास्ट कॉर्पोरेशन अर्थात बीबीसी को बदल नहीं देते, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा। क्या आप साथ देंगे?

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