आज सुबह मैं थोड़ा विलंब से जगा. ठंड काफी तेज थी. मुझे अनुभूति हुई क्योंकि रजाई के अंदर तक सरद हवायें घुस कर
मुझे ठंड का अहसास करा रही थी. इच्छा न हो रही थी कि रजाई से बाहर निकलूं और इच्छा होना भी लाज़मी था क्योंकि आज रविवार है. नींद से तो मैं जाग चुका था मगर रजाई और बिस्तर को छोड़कर नहीं जगा. हर दिन की तरह जल्दबाजी में सुबह में उठना उठकर नित्य क्रिया से निर्वित होकर कोचिंग के लिए जाने जैसा नहीं था . ठंड के दिनों में बाइक चलाना कितना मुश्किल है वो तो आप लोग भली-भांति वाकिफ़ हैं .हाथ एकदम सुना पड़ जाता है ठंड हवायें जैकेट को चीड़कर सीधे सीने में प्रवेश करने की जद्दोजहद में रहती है लेकिन क्या करे जाना पड़ता है. मगर आज वो सब नहीं होना था. लेकिन एक बात मेरे मन में आज भी कौंध रही थी .जो हर दिन मुझे कोचिंग जाने के दरमियाँ रास्ते में कुछ लोगों को देखने पर होती है.जब मैं बाइक से कोचिंग के लिए निकलता हूं तो रास्ते में मुझे कूड़े-कचड़े के ढ़ेर पर दो-चार लोग दिखते हैं.
कूड़े के पास फटे-पुराने कपड़े पहने उस कचड़े में से कुछ चुनकर खाते भी है और उसमें से कुछ कचड़े को फूंक कर अपने शरीर को गर्म करने की कोशिश करते हैं.मैं हर रोज देखता हूँ और देखकर उद्विग्न मन से आगे बढ़ जाता हूं. लेकिन वो दृश्य आज फिर मेरे आंखों के सामने से गुजरी है.मैं सोचता हूँ कि आज मैं इस मोटी रजाई को ओढ़ने के बावजूद ठंड से परेशान हूं तो उन बेघरों का इस ठंड में क्या हालत होगी. दिल्ली जैसे शहर में इस तरह की हालात हैं तो आप गांव के बारे में अंदाजा लगा सकते.फिर भी आज हम विकास का ढ़िंढ़ोरा पीट रहे है.आज आजादी के 70 वर्षों बाद भी लोगों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही है और हम खुद को विकासशील देशों में अपने को सुमार कर रहें हैं.
आजादी के सत्तर साल बाद भी देश में कम से कम साढ़े चार लाख परिवार बेघर हैं. बेघर परिवारों में से प्रत्येक का औसत तकरीबन चार( 3.9 व्यक्ति) व्यक्तियों का है.
जनगणना के नये आंकड़ों(2011) से पता चलता है बीते एक दशक(2001-2011) के बीच बेघर लोगों की संख्या 8 प्रतिशत घटी है तो भी देश में अभी कुल 17.7 लाख लोग बिल्कुल बेठिकाना हैं। हालांकि देश की कुल आबादी में बेघर लोगों की संख्या महज 0.15 प्रतिशत है तो भी इनकी कुल संख्या(तकरीबन 17 लाख) की अनदेखी नहीं की जा सकती.
नई जनगणना में बेघर परिवार की बड़ी स्पष्ट परिभाषा नियत की गई है।.जनगणना में उन परिवारों को बेघर माना जाता है जो किसी इमारत, जनगणना के क्रम में दर्ज मकान में नहीं रहते बल्कि खुले में, सड़क के किनारे, फुटपाथ, फ्लाईओवर या फिर सीढियों के नीचे रहने-सोने को बाध्य होते हैं अथवा जो लोग पूजास्थल, रेलवे प्लेटफार्म अथवा मंडप आदि में रहते हैं.जनगणना में ऐसे लोगों की गिनती 28 फरवरी 2011 को हुई थी.
विशेषज्ञों का मानना है कि बेघर लोगों की संख्या ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है क्योंकि ऐसे लोगों का कोई स्थायी वास-स्थान, पता-ठिकाना नहीं होता और ऐसे में बेघर लोगों को खोज पाना ही अपने आप में बड़ी मुश्किल का काम है. जिन मकानों की हालत अत्यंत जर्जर है, जो घरों बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं या फिर जिन घरों में एक छोटे से छत के नीचे बड़ी तादाद में लोग रहते हैं उन्हें भी बेघर में गिना जाय- ऐसा कई विशेषज्ञों का सुझाव है.
जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2001 से 2011 के बीच शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों की संख्या 20.5 प्रतिशत बढ़ी है जबकि ग्रामीण इलाकों में 28.4 प्रतिशत घटी है। बेघर आबादी में बच्चों की संख्या साल 2001 में 17.8 प्रतिशत थी जो साल 2011 में घटकर 15.3 प्रतिशत हो गई है.
बेघर परिवारों की संख्या के मामले में शीर्ष के पाँच राज्य: उत्तरप्रदेश (3.3 लाख), महाराष्ट्र (2.1 लाख), राजस्थान (1.8 लाख), मध्यप्रदेश (1.46 लाख) और आंध्रप्रदेश (1.45 लाख). हैं. गुजरात (1.4 लाख) का स्थान इस क्रम में छठा है. बहरहाल अगर कुल आबादी में बेघर लोगों के अनुपात के लिहाज से देखें तो शीर्ष के पाँच राज्यों में राजस्थान (0.3%), गुजरात (0.24%), हरियाणा (0.2%),मध्यप्रदेश (0.2%) तथा महाराष्ट्र (0.19%) का नाम आएगा.
इन आंकड़ों को देखने के बाद आप समझ सकते हैं कि भारत में लोगों की क्या स्थिति है। इस पर सरकार को जल्द ही पहल करने की जरूरत है । कम से कम लोग खुद के अपने घर में छत के नीचे रह सकें. उसे मुसाफिर की तरह इधर-उधर न भटकना पड़े.
बात यहीं पर समाप्त नहीं होती इसके साथ ही लोगों को उनकी क्षमता के अनुसार रोजगार दिया जाये जिससे वो अपना जीवन निर्वाह उचित ढ़ंग से कर सके.
और भी बहुत बातें हैं जो इसके अगली कड़ी में आपलोगों के सामने लेकर आऊंगा तब तक के लिए धन्यवाद.
(आदित्य रहब़र:पूर्व छात्र लंगट सिंह कॉलेज,मुज़फ़्फ़रपुर बिहार)