अशफाक कायमखानी।जयपुर।
हालाकि भारत मे लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम होने के बाद से ही राजस्थान स्तर पर कांग्रेस पार्टी के अलावा लोकदल व माकपा मे पीछले एक दशक पहले तक काफी मजबूत जाट नेतृत्व रहने के मुकाबले अब जाकर सभी दलो के साथ साथ कांग्रेस मे भी मजबूत जाट नेतृत्व का अभाव होने के कारण राजनीति मे जाट वोइस का असरदार होना कतई नही माना जा सकता।
राजस्थान कांग्रेस के सरदार हरलाल सिंह, चोधरी रामनारायण, परशराम मदेरणा, डा.चंद्रभान, चोधरी नारायण सिंह जैसे जाट नेता प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे है। जबकि अलग अलग समय मे नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, रामदेव सिहं महरिया, कुम्भाराम आर्य, शीशराम ओला, डा.कमला, सुमित्रा सिंह, कर्नल सोनाराम जैसे अनेक जाट बीरादरी से तालूक रखने वाले जनप्रिय नेता रह चुके है।
राजस्थान की जाट बीरादरी को वैसे तो कांग्रेस का परम्परागत मतदाता माना जाता है। लेकिन पहले हरिदेव जौशी व रामनिवास मिर्धा के विधायक दल के नेता पद चुनाव मे मिर्धा की हार एवं फिर 1998 मे बहुमत आने के बावजूद सम्भावित मुख्यमंत्री चेहरा परशराम मदेरणा की जगह अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो मानो जाट मतदाताओं मे कांग्रेस के प्रति एक खरास का भाव पनप आया। जिस खारेपन का अहसास रुक रुक कर जाट बीरादरी मे आज भी कांग्रेस के प्रति होता देखा जा रहा है।
प्रमुख रुप से जोधपुर, अजमेर, जयपुर व बीकानेर सम्भाग मे राजनीतिक दबदबा रखने वाली जाट बीरादरी की शूरुआती राजनीति की चमक-धमक सिद्धांत की मजबूत लकीर की तरह सभी तरह के मतदाताओं को साथ लेकर चलने मे महत्वपूर्ण नेतृत्व देने मे सक्षम थी। जिस नेतृत्व को विभिन्न राजनीतिक दलो की कुटिल चाल व कमजोर जाट नेतृत्व के उभरने के कारण आज जाट राजनीति के यह हालात बने है। लोकदल के समय कांग्रेस की राजनीति को बैलेंस किये रखने मे जाट नेताओं का प्रदेश की राजनीति मे खासा दखल था। लोकदल के खातमे के बाद भाजपा मे जाट नेताओं का प्रवेश हुवा ओर भाजपा सरकार मे राजस्थान व केंद्र सरकार मे जाट मंत्री बने व बने हुये है। लेकिन कांग्रेस मे जो जाट नेताओं की वोईस व दबदबा हुवा करता था वो भाजपा मे ना पनप पाया ओर नाहि आगे जाकर पनपने की उम्मीद है।
शेक्षणिक तौर पर पुराने जाट नेता नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, परशराम मदेरणा, रामदेव सिह महरिया, सुमित्रा सिंह व डा. कमला सहित अनेक उस मुश्किल हालात मे भी काफी मजबूत थे। लेकिन पीछले कुछ सालो मे जाट नेताओं की एक नये रुप मे खेप आई है। उन नेताओं की शैक्षणिक योग्यताओं का पैमाना अलग नजर आता है। पूराने जाट नेता शैक्षणिक तौर पर मजबूत होने के बावजूद खेत व गावं के साथ साथ आमजन से काफी हद तक जूड़े हुये होने के अलावा अपने सिंद्धातों पर हर हाल मे अड़िग रहने वाले थे।
कुल मिलाकर यह है कि राजस्थान मे कांग्रेस को मजबूती देकर पुरानी वाली दमदार व असरकारक स्थिति मे लाने के लिए कांग्रेस के थींकटैंक को कांग्रेस के परम्परागत मतदाता दलित-मुस्लिम के साथ जाट मतदाताओं को जोड़ने के उपाय तलासने होगे। उक्त तीनो मतदाताओं का गठजोड़ फिर से होकर कांग्रेस की तरफ अगर हो जाता है तो फिर अन्य मतदाताओं का झुकाव भी कांग्रेस की तरफ खींचा चला आयेगा। दूसरी तरफ जाट बीरादरी को सोचना होगा कि उनका राजनीतिक नेतृत्व पहले के मुकाबले कमजोर व बैअसर क्यो होता जा रहा है। जबकि बीरादरी की शेक्षणिक व राजनीतिक चेतना मे पहले के मुकाबले काफी बदलाव आना माना जा रहा है।