हमारी_ज़िंदगी_हमारी_नहीं??

मोहम्मद वाशीक़:पापुलर फ़्रन्ट दिल्ली

कारण,तर्क और विज्ञान के साथ उन लोगों को एक जवाब जो कहते हैं “मेरी ज़िंदगी, मेरे तरीके”

आजकल हम देखते हैं कि अकसर लोग अपनी ज़िंदगी अपने-अपने तरीके से गुज़ार रहे हैं | उन्हें जो अच्छा लगता है वही करते हैं और जो अच्छा नहीं लगता वो नहीं करते | अपनी पसंद-नापसंद, अपनी सोच के अनुसार ही उन्होंने अपने उसूल भी बना लिए हैं | और इसी का नतीजा है कि हमें ऐसा भी देखने को मिलता है कि जो चीज़ कुछ लोगों को नापसंद है या उनकी नज़र में ग़लत है, वही चीज़ कुछ और लोगों के आगे पसंदीदा और जायज़ चीज़ है | जैसे- कुछ लोगों को लगता है सिगरेट, शराब, ड्रग्स वग़ैरह ग़लत है, वहीं कुछ लोग मानते हैं कि सिगरेट ठीक है, शराब और ड्रग्स ग़लत है, वहीं कुछ लोग सिगरेट और शराब को सही मानते हैं मगर ड्रग्स को ग़लत, तो वहीं कुछ लोग कहते हैं कि सब सही है जो दिल करे वो करो |

पर क्या सच में ज़िंदगी के उसूल ऐसे ही होने चाहिए कि जिसको जो अच्छा लगता हो वो करे?

अगर ऐसा हुआ तो आपस में तकरार की संभावना बहुत बढ़ जाती है | इसीलिए ज़िंदगी के उसूलों को निश्चित (तय) करना बहुत ज़रूरी है | अब सवाल ये है कि सारे इंसानों के ज़िंदगी के उसूल कौन तय करेगा?

अगर हम आपस में मिलकर आपसी सहमति से कुछ उसूलों को तय करते हैं और परिभाषित करते हैं कि ऐसा करना सही माना जाएगा और ऐसा करना ग़लत, तो भी आपस में तकरार की कुछ संभावना रहेगी, क्योंकि सभी की सोच के मुताबिक एक उसूल तय करना मुमकिन नहीं | इसका साफ़ उदाहरण हमारे सामने मौजूद है अलग-अलग देशों के अलग-अलग संविधान, लोकतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष उसूल | मगर हमें मालूम है कि वक्त वक्त पर हमें इन उसूलों में भी तबदीली करती रहनी पड़ती है | इसके बावजूद इनमें कमियां रहती हैं | जैसे एक वक्त था जब लोग पॉर्न देखने को नापसंद करते थे, मगर आज समाज का कुछ वर्ग कहता है कि पॉर्न देखना ग़लत नहीं है, ये हमारी सोच पर निर्भर करता है | इसी लिए कानूनी तौर पर भी इसको जायज़ या नाजायज़ ठहराया जाता रहा है | इसी तरह से समलैंगिकता एक वक़्त में ग़लत और अपराध माना जाता था, मगर आज कुछ लोगों का मानना है कि ये आपसी सहमति पर निर्भर है और सही है | इसीलिए इसको भी कानून में तबदीली कर के जायज़ कर दिया गया |

यही वजह है कि कुछ चीज़ें जो एक देश में जायज़ है और लोग उसको सही मानते हैं वहीं दूसरे देश में वो नाजायज़ और बैन है | इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो हम अपनी समझ और बुद्धि से सोचते हैं जो हमें पसंद और ना पसंद होता है ज़रूरी नहीं कि वो सच में सही हो और पूरी इंसानियत के लिए पसंद और नापसंद हो |
तो अब सवाल ये है कि हमारी ज़िंदगी के उसूल कौन तय करेगा?

जवाब देने के लिए एक दूसरा सवाल- किसी मशीन के बारे में कौन बता सकता है कि इस मशीन के लिए क्या अच्छा है क्या नुकसानदेह, कैसे ऑप्रेट करने से ये मशीन सही चलेगी और कैसे इसमें ख़राबी आ सकती है | जवाब है – उस मशीन का अविष्कारक या मैनुफ़ैक्चरर | यानि उसको बनाने वाला | ठीक यही बात इंसानों पर भी लागू होती है | इंसान भी एक मशीन है ये बात विज्ञान भी मानता है कि इंसान सबसे उम्दा मशीन है | इसीलिए इंसानों के लिए क्या अच्छा होगा और क्या बुरा ये इंसानों को बनाने वाले से बेहतर कोई और नहीं बता सकता, और उसी बनाने वाले को हम कहते हैं ईश्वर, भगवान, गौड या अल्लाह | अगर हम चाहते हैं कि हमारे बीच समस्याएँ कम से कम हों, या सभी इंसान शांति पूर्वक ज़िंदगी गुज़ारे और सभी को जो भी उसका हक़ है वो मिले तो हमें अपनी ज़िंदगी अपने बनाए हुए उसूलों के नहीं बल्कि ईश्वर के बनाए हुए उसूलों के मुताबिक गुज़ारनी होगी |

#हमारी_ज़िंदगी_हमारी_नहीं –

क्या कोई अपनी मर्ज़ी से जन्म ले सकता है? अगर कोई ये कहे कि मैं अपनी मर्ज़ी से पैदा हुआ हूँ या मैं जब चाहूँ पैदा हो सकता हूँ तो लोग उसे पागल या सिरफ़िरा ही कहेंगे | जो लोग भ्रूणविज्ञान (Embryology) के सिंद्धांत को जानते हैं वो अच्छी तरह समझते हैं कि किसी भी बच्चे का उसकी माँ के पेट में वजूद में आने की संभावना कितनी कम होती है और ये ख़ुद मर्द और औरत के भी नियंत्रण से बाहर होता है | तो फिर ये संभव ही नहीं कोई इंसान ख़ुद अपनी मर्ज़ी से जन्म ले |

क्या कोई इंसान चाहे तो वो हमेशा ज़िंदा रह सकता है? नहीं | ये एक कभी ना झुठलाने वाला सच है कि जो इंसान पैदा हुआ है उसको मरना भी है | और मौत भी इंसान के नियंत्रण से बाहर है |

इन दोनों तर्कों से ये पता चलता है कि जन्म और मृत्यु इंसान के नियंत्रण में नहीं है, कोई और ही है जो इसको नियंत्रित करता है | वही वो ईश्वर है | तो हमारी ज़िंदगी हमारी कैसे हुई जबकि हमें जन्म देने वाला कोई और है और हमें मारने वाला कोई और |

जब हमारी ज़िंदगी हमारी नहीं तो फ़िर हम इसको अपनी मर्ज़ी से कैसे गुज़ार सकते हैं | हमें पैदा करने के पीछे भी ईश्वर का कोई मक़सद होगा |

हमारी ज़िंदगी के पीछे भी एक मक़सद है, हमें यूँही नहीं जन्म दिया गया है | यही समझाने के लिए ईश्वर वक़्त-वक़्त पर अपने संदेशवाहक (पैगंबरों) को भेजता रहा है और उनके ज़रिया अपनी किताबें भी भेजता रहा है | अगर हम सभी धर्मों के किताबों का अध्ययन करें तो हमें हमारे जीवन के मक़सद का पता चलता है |

हमारी ज़िंदगी एक परीक्षा है | जिसमें हमें कुछ ज़िम्मदारियाँ दी गई हैं | जैसे-
– एक ईश्वर को मानना और सिर्फ उसी की इबादत करना
– उस ईश्वर की जगह किसी और को न देना
– उस ईश्वर के संदेशवाहक (पैगंबर) के बताए तरीके अनुसार अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारना
-ईश्वर के पैग़ाम को उन लोगों तक पहुंचाना जो या तो इसके बारे में नहीं जानते या इस पर अमल नहीं करते
– ज़ुल्म को रोकना और हर जगह इंसाफ़ कायम करना

ये कुछ ज़िम्मेदारियाँ ईश्वर ने सभी इंसानों को दी है | अगर हम इसी के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारेंगे तो इस दुनिया में भी सभी लोग सुख शांति से रह सकते हैं और इस जन्म के बाद जब ईश्वर हमसे सवाल करेगा तो इसके बदले हमें स्वर्ग, जन्नत (Heaven) में जगह देगा और हम वहाँ हमेशा रहेंगे| और अगर हम इस तरीके से ज़िंदगी नहीं गुज़ारेंगे और अपनी मनमानी करेंगे तो इस दुनिया में सभी इंसानों का सुख-शांति से रहना मुमकिन नहीं और इस जन्म के बाद ईश्वर हमें नरक, जहन्नम (Hell) में डाल देगा जहाँ हमें हमेशा रहना होगा |

आशा करता हूँ कि अल्लाह हमें हमारी ज़िंदगी के असल मक़सद को समझने की तौफ़ीक़ अता करे और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करे |
आमीन ||

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity