जामिया मिल्लिया इस्लामिया में फिर से इस्लामी तहज़ीब-ओ-सकाफत को ज़िंदा करने की जरूरत है

(माजिद मजाज)
डॉक्टर जाकिर हुसैन ने 1938 में जामिया के स्थापना के उद्देश्यों के बारे में कहा था कि “जामिया मिल्लिया इस्लामिया का मुख्य उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के भविष्य के जीवन के लिए इस तरह के एक रोडमैप को विकसित करना है जो इस्लाम के चारों ओर घूमता हो और भारतीय संस्कृति के ऐसे रंगों से मिला जुला हो जो वैश्विक मानव सभ्यता के साथ मेल खाता हो”।

जामिया का अपना एक शानदार इतिहास रहा है, ये महज़ एक यूनिवर्सिटी ही नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्षों की एक मुकम्मल दस्तावेज़ का नाम है, इसकी बुनियाद की ईंटों में स्वतंत्रता सेनानियों का ख़ून और पसीना शामिल है, ख़िलाफ़त मूवमेंट की हर वो आवाज़ शामिल है जो सर ज़मीन-ए-हिंद से उठती थी।

भारत को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने के लिए जिन मुसलमानों ने अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया उन्हीं मुसलमानों की एक धरोहर का नाम है “जामिया मिल्लिया इस्लामिया”। अगर इसमें से इस्लाम को अलग कर दो तो फिर कुछ भी नहीं बचेगा।

यहाँ बात जामिया की हो रही है तो आप पहले ये समझ लें कि जामिया एक धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थान है। बहुत फ़र्क़ है बाक़ी संस्थाओं और जामिया में।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार दिए जाते हैं ताकि वे अपनी भाषा रीत-रिवाज और अपनी तहज़ीब का तहफ़्फुज़ कर सकें। क्योंकि बहुसंख्यक समाज में हमेशा अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति को लेकर ख़तरा बना रहता है, इसीलिए दुनिया के तमाम देश अपने यहाँ के अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष अधिकार देते हैं। इसीलिए अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान खोलने और इसकी ऑटोनोमी रखने का पूर्णरूप से अधिकार है जो हमारे संविधान की मौलिक अधिकारों की सूची में दर्ज है। अब अगर आप इसकी तुलना बाक़ी की दीगर संस्थाओं से करेंगे तो ये नाइंसाफ़ी ही नहीं बल्कि हमारे संविधान के साथ भी खिलवाड़ होगा।

इसलिए मेरा मानना है कि इस्लामी तहज़ीब और मानव सभ्यता के उद्धार के लिए इस्लाम का जो एतिहासिक रोल रहा है उसपर चर्चा करने के लिए इस मुल्क में जामिया से बेहतर कोई और जगह नहीं हो सकती, क्योंकि इस संस्था का मक़सद भी यही था कि मुस्लिम युवा एक भारतीय नागरिक के रूप में अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के दायरे में रहकर बहुसंख्यक समाज के साथ इस्लामी विचार और इसके व्यवहार को साझा कर सकें। इसका मूल उद्देश्य यही था कि मुसलमानों को अपनी धार्मिक पहचान को साथ लेकर एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्रीयता का निर्माण करना था।

ज़रूरत है जामिया में फिर से उसी इस्लामी तहज़ीब-ओ-सक़ाफत को ज़िंदा करने की जिसकी वजह से इसकी बुनियाद पड़ी थी वर्ना इसके स्थापना करने वालों के साथ ग़द्दारी होगी। महात्मा गांधी के साथ नाइंसाफ़ी होगी जो इस्लाम को इससे हमेशा जुड़ा हुआ देखना चाहते थे।

(माजिद मजाज के फेसबुक वॉल से)

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity