कैफ़ी आज़मी और बहराइच कैफ़ी आज़मी साहब की 102वीं जयंती पर

जुनेद अहमद नूर …….हिन्द-ओ-नेपाल सरहद पर आबाद एक छोटा सा ज़िला’ बहराइच इ’लाक़ा-ए-अवध का एक तारीख़ी इ’लाक़ा
है जिसे सुल्तानुश्शोह्दा फ़िल-हिंद हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) की जा-ए-शहादत होने का
शरफ़ हासिल है।बहराइच ज़माना-ए-क़दीम से इ’ल्म का मरकज़ रहा है।दरिया-ए-घाघरा के किनारे सूबा-ए-उत्तर प्रदेश के दारुल-हुकूमत लखनऊ से 125 किलो मीटर के फ़ासला पर वाक़े’ बहराइच सूबा-ओ-ख़ित्ता-ए-अवध का तारीख़ी ज़िला’ और शहर है।ज़िला’ बहराइच को अगर जुग़राफ़ियाई नुक़्ता-ए-नज़र से देखा जाए तो ये उत्तर प्रदेश का एक ऐसा ज़िला’ है जो नेपाल की सरहद पर और हिमालय की गोद में बसा हुआ
है।वैसे तो ये ज़िला’ तरक़्क़ियाती नुक़्ता-ए-नज़र से काफ़ी पसमांदा है लेकिन क़ुदरती दौलत से मालामालभी है।

बहराइच प्राचीन काल से ही ज्ञान का केंद्र रहा है। यहां ख़ास तौर पर उर्दू साहित्य ने बहुत तरक़्क़ी पाई। मशहूर बुज़ुर्ग हज़रत मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ के ख़लीफ़ा हज़रत शाह नईमउल्लाह बहराइची बहराइच(1740-1803) के पहले उर्दू शायर थे और आप के कलाम कलमी आपके ख़ानदान में आज भी महफ़ूज़ है,बहराइच ही वह धरती जहां पर शहंशाह ग़ज़ल मीर तक़ी मीर ने अपनी मसनवी "शिकारनामा" की रचना की थी। मीर तक़ी मीर ने बहराइच का उल्लेख करते हुए अपनी रचना में लिखा है कि

चले हम जो बहराइच से पेशतर
हुए सैद दरिया के वां पेशतर

प्रसिद्ध साहित्यकार, ईदगाह और गोदान जैसी विख्यात रचनाओं के लेखक मुंशी प्रेमचंद ने भी बहराइच नगर को अपनी रिहाइश का शर्फ़ बख़्शा है।मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 ई. में हुआ था। जब आप की आयु 20 वर्ष की हुई तब आप ने बतौर शिक्षक सरकारी नौकरी शुरू की। 2 जुलाई 1900 को आप का ट्रांसफर बहराइच नगर के राजकीय इंटर कॉलेज में 20 रुपए महीना पर हुआ जहां आपने बतौर शिक्षक तीन माह तक शैक्षिक कार्य किया। बहराइच में ही आप ने अपने पहले उपन्यास असरारे मआबिद
की शुरुआत की थी।प्रोफ़ेसर सैय्यद मसऊद हसन रिज़वी "अदीब" का जन्म बहराइच के मोहल्ला नाज़िरपुरा में हुआ था,विख्यात उपन्यासकार इस्मत चुग़ताई, अज़ीम बेग चुग़ताई और प्रसिद्ध उर्दू शायर कैफ़ी आज़मी का बचपन का एक दौर बहराइच मे गुज़रा।
यह तो था बहराइच और उर्दू अदब के बीच का ताल्लुक़ हमारा यह लेख असल में कैफ़ी आज़मी साहब पर है और उनकी ही किताब के हवाले से बहराइच से उनके रिश्ते को उजागर करता है।

मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी साहब का जन्म 14 जनवरी 1919 ईस्वी को ज़िला आजमगढ़ के मिजवा में हुआ था।कैफ़ी साहब का हमारे तरीख़ी शहर बहराइच से गहरा रिश्ता था। आप के बचपन के दिन बहराइच में ही गुज़रे हैं कैफ़ी साहब के वालिद साहब नवाबगंज अलियाबाद ज़िला बहराइच के नवाब क़िज़्लबाश के यहां मुलाज़मत करते थे और शहर बहराइच के मोहल्ला सैय्यदवाड़ा क़ाज़ीपुरा में रहते थे। कैफ़ी साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल बहराइच में ही कहीं और पढ़ी थी। इस बारे में ख़ुद कैफ़ी अपने
मजमुआ कलाम सरमाया में लिखते हैं: वाक़्या यह है कि अब्बा बहराइच में थे। नवाब क़िज़्लबाश स्टैट(तालुक़ा नवाबगंज अलियाबाद बहराइच)के मुख़्तार आम या पता नहीं किया ,वहां एक मुशायरा मुनअ्क़िद हुआ उस वक़्त ज़्यादातर मुशायरे तरही
हुआ करते थे उसी तरह का एक मुशायरा था ।भाई सहिबान लखनऊ से आएं थे। बहराइच, गोंडा, नानपारा और क़रीब दूर के बहुत से शोअ्रा बुलाए गए थे।मुशायरे के सदर मानी जायसी साहब थे,उनके शेर सुनने का एक विशेष तरीका था,वह शेर को सुनने के लिए अपनी जगह पर उकडू बैठते थे और अपना सिर दोनों घुटनों से दबा लेते थे और झुम झूम के शेर सुनते और दाद देते थे।
उस वक़्त शोअरा हस्ब मरातिब बैठाए जाते ,एक छोटी सी चौकी पर क़ीमती का़लीन बिछा होता और गाव तकिया लगा हुआ होता। सदर उसी चौकी पर गाव तकिये के सहारे बैठता था,जिस शायर की बारी आती वह उसी चौकी पर आके एक तरफ निहायत अदब से दो ज़ानो होके बैठता, मुझे मौक़ा मिला तो मैं भी उसी तरह अदब से चौकी पर एक कोने में दो ज़ानो बैठ के अपनी ग़ज़ल जो तरह में थी सुनाने लगा ,तरह थी ‘’मेहरबां होता राज़दां होता’’ वगैरह मैंने एक शेर पढ़ा।

वह सब की सुन रहे हैं सब को दाद-ए-शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्सा-ए-ग़म भी बयां होता

मानी साहब को न जाने शेर इतना क्यों पसंद आया कि उन्होंने ख़ुश होकर पीठ ठोकने के लिए पीठ पर एक हाथ मारा तो मैं चौकी से ज़मीन पर आ रहा।मानी साहब का मुंह घुटनों में छुपा हुआ था इसलिए उन्होंने देखा नहीं कि किया हुआ झूम झूम के दाद देते और शेर मुकर्रर मुकर्रर मुझ से पढ़वाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा पड़ा शेर दोहराता रहा,यह पहला मुशायरा था जिस में शायर की हैसियत से मैं शरीक हुआ।

इस मुशायरे में जितनी दाद मिली उस की याद से अबतक कोफ़्त होती है। बुज़ुर्गों ने दाद दी और कुछ  लोगों ने शक किया कि यह ग़ज़ल किसी और की है और मैंने उसे अपने नाम से पढ़ी है।इस पर मैं रोने लगा तब बड़े भाई शब्बीर हुसैन वफ़ा जिन्हें अब्बा सबसे ज़्यादा चाहते थे उन्होंने अब्बा से उन्होंने जो ग़ज़ल पढ़ी है वह उन्हीं की है शक दूर करने के लिए क्यों न उनका इम्तिहान ले लिया जाए उस वक़्त अब्बा के मुंशी हज़रत शौक़ बहराइची थे जो मज़ाहिया शायर थे।उन्होंने ने इस तजवीज़ की ताइद की,मुझ
से पूछा गया इम्तिहान देने के लिए तैयार हो, मैं ख़ुशी से तैयार हो गया। शौक़ बहराइची साहब ने  मिसरा दिया ~~~

इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े

भाई साहब ने कहा कि इन के लिए रह ज़मीन बंजर साबित होगी कोई शगुफ़्ता सी तजवीज़ कीजिए लेकिन मैंने कहा अगर ग़ज़ल कहूंगा तो इसी ज़मीन में वरना इम्तिहान नहीं दूंगा,तय पाया कि इसी तरह  में तब ए आज़माई करुं और थोड़ी देर में तीन-चार शेर कहे जो इस तरह थे जिसे बाद में *बेगम  अख़्तर* ने अपनी आवाज़ से पंख लगा दिए और वह हिन्दुस्तान,पाकिस्तान में मशहूर हो गई वह ग़ज़ल मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है जिसको मैंने 11 साल की उम्र में कही थी ।
इतना तो ज़िन्दगी में किसी के ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकूं न रोने से कल पड़े
जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी के गर्म अश्क
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-व-फ़राज़
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तिश्न: लबी मगर
मय है इसीकी नाम पे जिसकी उबल पड़े
मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े

अब इस ग़ज़ल को आप पसन्द करें या न करें, खुद मैं अब ऐसी ग़ज़ल नहीं कह सकता l लेकिन इसकी खूबी है कि इसने लोगों का शक़ दूर कर दिया और सब ने यह मान लिया कि मैंने जो कुछ अपने नाम से मुशाअरे में सुनाया था वह मेरा ही कहा हुआ था, मांगे का उजाला नहीं था l बहराइच में यह ग़ज़ल कहने और मुशाअरे में सुनाने के बाद जब लखनऊ आया तो सब ने यह समझाया कि अगर संजीदगी के साथ शाइरी करना चाहते हो तो किसी उस्ताद का दामन पकड़ लो l कोई बे उस्ताद शाइर नहीं हो सकता
l हो सकता है गोण्डा, बहराइच में हो जाये लेकिन यह लखनऊ है l उस ज़माने में वहां दो उस्तादों का सिक्का चल रहा था l हज़रत आरज़ू लखनवी और मौलाना सफ़ी l मैं आरज़ू साहब के मुक़ाबले में सफ़ी साहब को ज़ियाद: पसन्द करता था l हिम्मत करके उनके घर पहुँच गया l

बहराइच के मशहूर उस्ताद शौक़ बहराइची, शायर मुंशी मोहम्मद यार ख़ां राफ़त
बहराइची,जमालुद्दीन बाबा जमाल बहराइची, बाबू सूरज नारायन सिंह आरज़ू बहराइची ,बाबू लाडली प्रसाद हैरत बहराइची,लेखक के परनाना हाजी शफ़ीउल्ला शफ़ी बहराइची कैफ़ी साहब के बहराइच के दोस्तों में थे।बाद में भी जब कैफ़ी साहब का बहराइच आना जाना रहा जिस में वह अपने दोस्तों से शफ़ी साहब की दुकान पर मुलाक़ात करते थे।

कैफ़ी आज़मी साहब बहराइच आख़िरी बार 8 फ़रवरी सन् 1986 ईस्वी में आल
इंडिया मुशायरा में शिरकत करने आए थे जिसका आयोजन टैक्सी स्टैंड एसोसिएशन बहराइच ने किया था।
हवालाजात
*सरमाया(कैफ़ी आज़मी)*
*बहराइच उर्दू अदब में(जुनेद अहमद नूर)*

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शम्स तबरेज़ क़ासमी मिल्लत टाइम्स ग्रुप के संस्थापक एंड चीफ संपादक हैं, ग्राउंड रिपोर्ट और कंटेंट राइटिंग के अलावा वो खबर दर खबर और डिबेट शो "देश के साथ" के होस्ट भी हैं सोशल मीडिया पर आप उनसे जुड़ सकते हैं Email: stqasmi@gmail.com