अशफाक कायमखानी।जयपुर।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने खिलाफ विधायको मे बगावत के सूर नही निकलने इसलिए सभी विधायकों को अपने अपने क्षेत्र के पंचायत-निकाय चुनाव की टिकट देने के अलावा पसंद के डिजायर प्रथा के मार्फत सरकारी कार्मिक लगाने के अतिरिक्त सभी तरह के विकास के काम उनकी मर्जी से होने की पूरी छूट दे कर उन्हें भरपूर सत्ता का सूख भोगने की परिपाटी जो 1998 मे डाली वो आज भी जारी कर रखी है। लेकिन अबकी दफा सचिन पायलट के विधायक-मंत्री बनकर सत्ता सूख भोगने की बजाय मुख्यमंत्री बनकर सत्ता अपने हिसाब से चलाने का दावा ठोके रखने का परिणाम यह निकला कि सत्ता के दो पावर सेंटर कायम होने के चलते विधायकों मे मुख्यमंत्री के प्रति आक्रोश लगातार पनपते जाने पर आज पायलट के नेतृत्व मे विधायकों ने राजस्थान मे नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर जो कदम उठाया है उससे सरकार लड़खड़ाने लगी है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने अब तक के सभी मुख्यमंत्री कार्यकाल मे संगठन के प्रदेश पदाधिकारियों सहित जिलाध्यक्ष व लोकसभा सभा सदस्य या कांग्रेस की तरफ से लोकसभा उम्मीदवार रहे नेताओं को सत्ता सूख से हमेशा कोसो दूर रखने की रणनीति को अपनाये रखा है। इन सब नेताओं के मुकाबले विधायकों को सत्ता पूरी तरजीह देकर सर्वेसर्वा बनाये रहने से कांग्रेस संगठन व नेताओं सहित आम कार्यकर्ताओं मे कांग्रेस की सरकार रहने के बावजूद जब इनकी छवनी जब एक पैसे मे भी नही चली तो उनमे उदासीनता आने से गहलोत के मुख्यमंत्री रहते आम विधानसभा चुनाव होने पर कांग्रेस हमेशा ओधे मुह गिरती आई है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने नेतृत्व वाली सरकार मे केवल मात्र विधायकों को खूश करने का एक अलग तरह की परिपाटी का जो चलन शुरु कर रखा है जिसके तहत विधानसभा के दोसो कांग्रेस उम्मीदवारो को तो सत्ता मे पूरी तरजीह दी। वही दोसो के मुकाबले कांग्रेस के पच्चीस लोकसभा उम्मीदवारों को रत्ती भर भी तरजीह नही देने का ही परिणाम यह निकला कि आज संकट की घड़ी मे वो सभी पच्चीस उम्मीदवार किसी भी तरह की मुख्यमंत्री के फेवर मे भूमिका निभाते नजर नही आये। या फिर वो सभी भूमिका निभाने मे सत्ता संघर्ष के चले नाटक मे सक्षम नही हो पाये। अगर मुख्यमंत्री गहलोत विधायकों के साथ साथ लोकसभा का चुनाव लड़े कांग्रेस उम्मीदवारों व संगठन के ओहदेदारों को सत्ता सूख मे चाहे विधायकों से कम लेकिन उन्हें भी अहमियत देते तो वो सभी नेता आज उनकी ढाल बनकर संकट के दौर मे साथ खड़े नजर आते।
राजस्थान मे आम विधानसभा चुनाव के पहले होने के कारण अधिकांश लोकसभा उम्मीदवारों ने कांग्रेस के विधानसभा उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिये अपनी पूरी ताकत को झोंक कर कोशिश करने का परिणाम ही आया कि प्रदेश मे कांग्रेस की सरकार गठित हो पाई। इसके विपरीत गहलोत के नेतृत्व मे सरकार गठित होने के बाद जब लोकसभा चुनाव हुये तो उस चुनावों मे विधायक व विधानसभा उम्मीदवारों ने सत्ता के नशे मे सत्ता सूख मे अन्य को भागीदारी ना देने की मानसिकता के चलते लोकसभा चुनाव मे उदासीन रहकर काम किया बताते। अगर उक्त लोग अपने चुनाव की तरह लोकसभा उम्मीदवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मेहनत करते तो प्रदेश मे बालाकोट-पुलवामा मामले के बावजूद 8-10 कांग्रेस से सांसद विजयी होते। एवं चुनाव हार का मंत अंतर भी निश्चित बहुत कम होता।
कुल मिलाकर यह है कि आठ विधानसभाओं पर बना एक लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार भी अपनी कुछ ना कुछ राजनीतिक हेसियत जरुर रखता होगा। मुख्यमंत्री ने सरकार व अपना नेतृत्व बचाये रखने के लिये समर्थक विधायको को एक पखवाड़े से होटल मे बंद करके रख रखा है। जबकि सचिन पायलट सहित 19 कांग्रेस विधायक नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर राजस्थान के बाहर अज्ञात स्थान पर डेरा डाले हुयै है। ऐसे हालात मे मुख्यमंत्री की पहल व पसंद के मुताबिक पायलट को सभी पदो से हटाकर उनकी जगह नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया है। पायलट समर्थक दो मंत्रियों को भी मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। पूरी प्रदेश कांग्रेस कमेटी व उसके अग्रिम संगठनों को भी भंग कर दिया गया है। युवा-एनएसयूआई व सेवादल के प्रदेश अध्यक्ष बदल दिये गये है। फिर भी कांग्रेस सरकार पर आया संकट अभी टला नही है। बल्कि दिन ब दिन संकट पेचीदा होता जा रहा है।