भारत को इसराइल बनाने की साज़िश:प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद

(धर्म-आधारित नागरिकता के लिए विधेयक : इस अनर्थ तक कैसे पहुंचा है भारत ?)

प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद

दिसंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) को अगले सप्ताह संसद में पेश करने की अनुमति दे दी. यह एक ऐसा क़ानून होगा जो निहायत ही विभेदकारी और धर्म/मत पर आधारित होगा. यह विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के खिलाफ होगा. और इसी वजह से यह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध होगा और संविधान की मौलिक संरचना के खिलाफ भी. उत्तर पूर्वी राज्यों में नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) को लागू करने के अनुभव के बाद यह विधेयक लाया जा रहा है.

एनआरसी ने असम के लगभग 19 लाख लोगों को मताधिकार से वंचित और उन्हें राज्यविहीन कर दिया है. और यह सब न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की देखरेख में हुआ जो खुद भी असम के हैं. सो, एक विशेष धार्मिक समुदाय को जानबूझकर उसके मताधिकार से वंचित करने के इस प्रयास के खिलाफ इस देश की शीर्ष अदालत की भी मदद नहीं ली जा सकती. इस बात के दूसरे दृष्टांत भी हैं – अयोध्या में 9 नवंबर 2019 को टाइटल सूट का फैसला जिसने नागरिकों को इस कदर निस्सहाय बना दिया है जो कल्पना से भी परे है.

भारत जैसे देश में जहां पर सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों के लिए अपने शैक्षिक डिग्री और जन्म का विश्वसनीय प्रमाणपत्र तक पेश करना मुश्किल है, आम लोगों को अपने पुरखों के बारे में एक से अधिक दस्तावेज पेश करने को कहा जा रहा है. आम लोगों में इस वजह से भयंकर डर बैठ गया है. असम में इसके अनुभव से लोगों को पता चल चुका है कि इसने भारी संख्या में हिन्दुओं को भी गैर-नागरिक बना दिया. सांघातिक रूप से अपने विभाजनकारी और घृणा-भरी बहुसंख्यकवादी विचारधारा और दस्तूर के लिए कुख्यात बीजेपी अब एक विधेयक ला रही है जिसकी मंशा सिर्फ ऐसे लोगों को राहत दिलाना है जो मुसलमान नहीं हैं.

फिलिस्तीनियों के खिलाफ इस्राइल जिस तरह का व्यवहार कर रहा है, सीएबी एकदम वैसा ही है. इसमें यहूदियों की विचारधारा Zionism की स्पष्ट छाप है. यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना है कि सत्ताधारी हिंदुत्ववादी सरकार की विचारधारा हिटलर के नात्सीवाद (और मुसोलिनी के फासीवाद) से प्रेरित है जो यहूदियों के खिलाफ नृशंस हिंसा और उनके नरसंहार के लिए जिम्मेदार रहे हैं. पर इसके साथ ही वह विचारधारा और दस्तूर के स्तर पर यहूदीपरस्त यहूदी Zionist state राज्य का भी मित्र है. उपनिवेश के खिलाफ अपने समावेशी राष्ट्रीय संघर्ष और हर तरह के अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने वालों का नेतृत्व करने की अपनी साकांक्ष भूमिका को समझते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 9 नवंबर 1938 के हिटलर के यहूदी-विरोध और उनके नरसंहार, जो ‘क्रिस्टल नाईट’ के नाम से कुख्यात है, की नींदा की थी. 12 दिसंबर 1938 को कांग्रेस ने जर्मनी के यहूदियों को शरण देने का प्रस्ताव दिया था. और यह भी आज के इतिहास की विडंबना के रूप में याद किया जाएगा कि अत्याचार के शिकार ऐसे यहूदी, आज उस हिन्दुत्वादी ताकतों के साथ खड़े दिख रहे हैं, जो उस भारतीय राष्ट्रीयता जिसका साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिया था, के विरोधी और अपने चरित्र में प्रतिगामी थे.

हिंदुत्व के मुख्य सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) पहले ही इस तरह के भेदभावकारी नागरिकता राष्ट्रीयता का प्रस्ताव कर चुके हैं. सावरकर ने अंडमान के सेल्यूलर जेल में चोरी-छिपे 1917 में ‘हिंदुत्व’ नाम से एक पुस्तक लिखी. यह पुस्तक उनके भूमिगत रहते हुए 1923 में छपी. 1937-1942 के दौरान सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे जबकि केबी हेडगेवार (1889-1940) जिन्होंने आरएसएस की नींव रखी, 1926-1931 के दौरान इसके सचिव थे.

सावरकर ने 1 अगस्त 1938 ‘भारत की विदेश नीति’ पर पुणे में एक भाषण दिया था. इसमें उन्होंने कहा था : “जर्मनी को नात्सीवाद और इटली को फासीवाद को अपनाने का पूरा अधिकार है…जर्मनी के लिए क्या उचित है यह पंडित नेहरू से ज्यादा अच्छी तरह हिटलर जानता है…”. मालेगांव में 14 अक्टूबर 1938 को सावरकर ने कहा : “बहुसंख्यकों से राष्ट्र बनता है…यहूदी जर्मनी में क्या कर रहे हैं? चूंकि वे अल्पसंख्यक हैं, उन्हें जर्मनी से बाहर भगा दिया जाना चाहिए.” और 11 दिसंबर 1938 को अपने एक अन्य भाषण में सावरकर ने कहा : “जर्मनी में जर्मनों का आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन है पर यहूदियों का आन्दोलन सांप्रदायिक”. उनकी ये बातें एमएस गोलवलकर (1906-1973) की 1939 में प्रकाशित पुस्तक “वी और आवर नेशनहुड डिफाइंड” में प्रतिध्वनित हुई हैं. उन्हों ने लिखा, “मुसलमानों को भारत में रहना है तो हिंदुओं के अधीन, बिना किसी नागरिकता अधिकारों के साथ रह सकते हैं”. मराठी अखबार “द महरत्ता” ने 1939 में और “केसरी” (दिसंबर 8 और 15, 1939) में इन या ऐसे विचारों का समर्थन किया गया और इनको लोकप्रिय बनाया गया.

सावरकर ने 1966 में अपनी मौत से कुछ साल पहले मराठी भाषा में एक किताब, Six Glorious Epochs in Indian History, में यह अनुमोदित किया कि दंगों में मुस्लिम औरतों का बलात्कार उचित है.

हेडगवार के संरक्षक बीएस मूंजे (1872-1948) मार्च 1931 में इटली के तानाशाह से संपर्क करने वाले पहले हिंदुत्ववादी नेता थे. वे पहले गोलमेज सम्मलेन के बाद यूरोप की यात्रा पर थे. उस दौरान मूंजे ने ‘फासीवादी सैनिक प्रशिक्षण स्कूलों का दौरा किया और आरएसएस को इटली के फासीवादी आधार पर ढालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई’. हिंदु महासभा के दूसरे नेता, एम. आर. जयकर (1873-1959) भी फासीवादी सैन्य संगठन से प्रेरित थे.

पर इन पूरी बातों पर राजनीतिक विपक्ष या तो चुप है या कुछ भी बोलने से डर रहा है. जैसा की लग रहा है, अभी जो हो रहा है उससे अधिक से अधिक संख्या में हिन्दुओं में कोई नाराजगी नहीं दिख रही है. अगर राज्य-समर्थित भीड़ की हिंसा (लिंचिंग) भी लोगों में आक्रोश पैदा नहीं कर पाया है तो फिर किसकी बात की जाए!

आधुनिक भारतीय इतिहास के छात्र के रूप में मेरे लिए यह बड़ी चिंता की बात है : भारत इस कदर खतरनाक कैसे हो गया?

भारत के विगत को उपनिवेशवादियों ने कुछ इस तरह से गढ़ा है ताकि मुसलमान शासक सिर्फ हमलावर माने जाएं और मध्यकालीन भारते में मुसलमान शासकों ने जो भी किया उसके लिए सभी मुसलमानों को जिम्मेदार माना जाए.

आजादी के बाद भी, बंटवारे का जो इतिहास लिखा गया है उसमें मुसलमानों को अलगावादी मानकर उन्हें बदनाम किया गया है, देश के दुश्मनों का साथ देनेवाला माना है. बंटवारे का लगभग सारा दोष मुसलमानों के सिर मढ़ दिया गया है. ऐसा उन इतिहास-लेखनों में भी हुआ है जिसे राष्ट्रवादी और उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष विचार रखने वाला माना जाता है. सिर्फ हिंदुत्ववादी ताकतों के अंदर ही नहीं बल्कि कांग्रेस के अन्दर भी, विशेषकर 1938 के बाद, बहुसंख्यावादी ताकतें सिर उठा रही थीं और यहाँ तक कि अकादमिक इतिहासकार भी इससे अनभिज्ञ रहे. मतलब यह कि, भारत के बंटवारे में इन बहुसंख्यावादियों की निश्चित रूप से कोई छोटी भूमिका नहीं थी, यह तथ्य लोकप्रिय नहीं हो सका और आज भी लोग भारतीय इतिहास के इस तथ्य के बारे में कम ही जानते हैं. मुसलमानों के खिलाफ बहुसंख्यकों की घृणा को बढ़ाने में इसने बहुत योगदान दिया है. इस स्थिति ने धीरे-धीरे अधिक से अधिक संख्या में हिन्दुओं के बीच हिंदुत्ववादी विचारधारा की स्वीकार्यता की जमीन तैयार कर दी है.

आपातकाल-विरोधी आन्दोलन के दौरान “समादृत समाजवादियों’ ने इस तरह के विभाजनकारी ताकतों को मान्यता दिला दी. जैसा कि अरविन्द राजगोपाल ने कहा है : “अपने माथे पर गांधी की हत्या का कलंक ढो रहा आरएसएस राजनीतिक अछूत बन गया था. पर आपातकाल के बाद, सत्ता हासिल करना उसके लिए संभव हो गया. इसके बाद धर्मनिरपेक्षता और हिंदुत्व दोनों का भाग्य निर्णायक रूप से बदल गया”. आरएसएस ने लोकप्रिय लामबंदी के महत्त्व को समझा और बाद में ‘लोकतांत्रिक संघर्ष की फर्जी कहानी गढ़ी जो सिर्फ उसी के रिकॉर्ड में उपलब्ध है”. इस बात को वे अपने माथे पर लिखकर घूमते हैं और गर्व से इसे ‘दूसरा स्वतन्त्रता आन्दोलन’ बताते हैं. ये लोग अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई से दूर रहे और यहाँ तक कि उनके साथ समझौता भी किया. बॉम्बे में 9 अक्टूबर 1939 को वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के साथ एक भेंट में सावरकर ने उन्हें आश्वासन दिया : ‘हिन्दू महासभा दूसरे विश्वयुद्ध के बाद डोमिनियन स्टेटस को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेगा और इस तरह आजादी के लिए उनके खिलाफ लड़ने के बदले वह अंग्रेजों की मिलीभगत से उनकी जगह काबिज होने में दिलचस्पी रखती थी’.

केवल इतना ही नहीं, 1980 में सत्ता में वापसी करने पर इंदिरा गांधी का रुख भी दक्षिणपंथी हो गया. उन्होंने वीएचपी की एकता माता यात्रा (जिसे गंगाजल यात्रा भी कहा जाता है) के लिए आमंत्रण स्वीकार कर लिया जो उसका पहला जनसंपर्क कार्यक्रम था. रामजन्मभूमि आंदोलन इस यात्रा के बाद शुरू हुआ और उसके बाद जो हुआ वह इतिहास का हिसा बन चुका है और जो भष्मासुर की तरह आज भी हमारा पीछा कर रहा है. आज हम जिस ऊंची चट्टान पर खड़े होकर वहाँ से फिसलने की स्थिति में पहुंचे गए हैं उसके लिए राजीव गाँधी का असम समझौता (1985) जिम्मेदार है.

सत्ता में बैठी सरकार आर्थिक मोर्चे पर लगातार फिसलती जा रही है और इससे ध्यान बंटाने के लिए वह देश में सांप्रदायिक उन्माद फैला रही है. इस देश की जनता को इस विनाशकारी षड्यंत्र को समझना चाहिए.

SHARE
is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity