बहुत सालों बाद अपने गांव में कृष्णा जन्माष्टमी देखने का मौका मिला तो बचपन के वो दिन याद आ गए जब हम लोग शौक से अपने गांव के मेले में जाया करते थे. बड़े होने के बाद भी हम लोग ऐसा ही करते थे. यकीनन वो प्यार मोहब्बत और भाईचारे के सुहाने दिन थे. उन दिनों लोगों के जेब खाली हुआ करते थे लेकिन दिलों में बेशुमार मोहब्बत होती थी. और जैसा कि आप जानते हैं बिना सम्मान के मोहब्बत तो हो ही नहीं सकती थी. तो समाज में एक दूसरे का सम्मान भी भरपूर था.
लेकिन ये सारी बातें जो मै आपको बता रहा हूं शायद ये पूराने हिंदुस्तान की एक खूबसूरत तस्वीर है. लेकिन अब हमारा देश नाए हिंदुस्तान की तरफ कदम बढ़ा चुका है जहां पूराने सिक्के नहीं चलते हैं. बीते हुए कल और आज में सबसे बड़ा फर्क जो मैंने महसूस किया है वो ये है के पहले लोग समाज में एक दूसरे को उसके किरदार और बर्ताव की बदौलत जाना और पहचाना करते थे लेकिन नए हिंदुस्तान में अब हम एक दूसरे को उनके धर्म की बदौलत जानने और पहचानने लगे हैं. यानी पहले किरदार हमारी पहचान थी अब धर्म हमारी आइडेंटिटी है.
दरअसल हर साल मेरे गांव में कृष्ण जी आते हैं और फिर उनको विदा भी किया जाता है. कल शाम में उनकी विदाई थी. कृष्ण जी को जिन रास्तों से नदी तक ले जाया जाता है उस रास्ते में मुस्लिम आबादी और मेरे गांव की खूबसूरत मस्जिद पड़ती है. मस्जिद के पास ही मेरा घर भी है. मगरिब के बाद एक ट्रैक्टर पर कृष्ण जी की मूर्ति को रख कर ले जाया जा रहा था, सड़क पे काफी भीड़ थी इसलिए मैंने सोचा क्यूं ना छत से ही कृष्ण जी को देखा जाए.
इसलिए मैं छत पे चला गया.
लेकिन जब मैंने छत से सड़क पे देखा तो मुझे अपना ही गांव बदला हुआ महसूस हुआ. मैंने पूराने हिंदुस्तान को उस भीड़ में खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे सिर्फ नया हिंदुस्तान और कुछ पुलिस वाले दिखे जो इस भीड़ को संभालने की नाकाम कोशिश कर रहे थे . भीड़ में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे लेकिन इनके रहनुमा गायब थे. नौजानों को शायद ना मालूम हो लेकिन सियासत में रहने वाले लोगों को अच्छी तरह मालूम होता है के कब कहां पे रहना है और कब कहां से गायब हो जाना है. खैर खुदा का शुक्र है के कोई अनहोनी नहीं हुई लेकिन क्या हमें उस दिन का इंतज़ार करना चाहिए जब कोई हादसा हमारे समाज में हो जाए ? और बचा हुआ भाईचारा भी ख़तम हो जाए? या आपसी सहमति से कोई बेहतर समाधान खोजना चाहिए?
एक और चीज जो मैंने नोटिस किया है के सियासी लोगों को हर हाल में अपने वोट की ही फिक्र होती है. ये लोग वो काम नहीं करेंगे जिस से समाज का भला हो बल्कि वो काम करेंगे जिससे इनकी कुर्सी पे कोई आंच न आए. मेरे गांव के समझदार लोगों से मेरी गुज़ारिश है के प्लीज़ ऐसे सेंसिटिव मामले को सियासी लोगों के हवाले ना करें वर्ना ये लोग फोड़े को कैंसर में बदल देंगे. ये हुनर सियासी लोगों को बहुत अच्छी तरह आता है!
बेहतर यही होगा के हम सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए समाज में रहें क्युं के इसी में हम सब की भलाई है. जब हम सबको यहीं रहना है तो क्यों ना इसे रहने की जगह बने रहने दें.
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिंदुस्तान हमारा