सेक्युलर राजनीति के अंदर की साम्प्रदायिकता

तनवीर आलम
1990 के दशक से बने साम्प्रदायिक भय पर खड़ी राजनीति ने देश में कई मुखर चेहरे दिए। उस भय पर अल्पसंख्यकों के हितों की बात करते करते कई चेहरों ने अपनी सियासी ज़मीन को उर्वरक तो बनाया ही, साथ ही मुस्लिम नेताओं को बड़ी खूबसूरती से खामोश भी रखा। ये चेहरे सामाजिक न्याय की बात करते करते घोर जातिवादी मानसिकता का शिकार भी हो गए। इस परिवेश में परिवार के अंदर जो राजनीति बढ़ी उसके फलस्वरूप उनकी आज की पीढ़ी हमारे सामने है। नई पीढ़ी के इन नेताओं ने मान लिया है कि अल्पसंख्यक वोट अब उनकी जागीर हैं। इन परिवारों या दलों ने जिन मुस्लिम चेहरों को जगह दी वो भी हमारे सामने हैं। उनके सामने अल्पसंख्यक हित से ज़्यादा महत्वपूर्ण अपनी राजनीति है। अगर ऐसा नहीं होता तो विगत सालों में अनेक दंगे हुए, ट्रिपल तलाक़ का मामला हुआ, मुसलमानों की लिंचिंग हुई, खुलेआम ज़ैनुल अंसारी को जला कर मार दिया गया, पुलिस कस्टडी में हत्या हुई और ये तथाकथित मुस्लिम चेहरे खामोश रहे। इसलिए यह मान लेने में हर्ज नहीं है कि मुस्लिम हितों की बात इन मुस्लिम नेतृत्व के लिए महत्वपूर्ण नहीं। ऐसे में इन चेहरों को टिकट मिलने, कट जाने या उनको वोट देने पर मुस्लिम समाज के अंदर विरोध या समर्थन पर चर्चा की बजाए भाजपा हराओ की नीति अधिक चर्चा का विषय है।
बिहार में यूपीए के सबसे बड़े घटक दल राजद ने जिस प्रकार अपने को एक जाती से निकालकर गैर यादव जातियों कुशवाहा, मांझी और निषाद को जोड़ने का काम किया ये उसका सराहनीय कदम है। लेकिन इन जातियों के नेताओं ने अपनी ही पार्टी के अंदर जिस प्रकार से दूसरे समाज की उपेक्षा की है ये उनकी घोर जातिवादी मानसिकता को दर्शाता है। 40 प्रतिशत अतिपिछड़ों की भागीदारी की बात करने वाले तेजस्वी यादव ने पिछड़ों को निराश किया। राजद ने 8 टिकट यादवों को दे दिया। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने एक दलित, एक सवर्ण और तीन कुशवाहा को टिकट दिया। उनकी पार्टी में शुरू से मुसलमानों की एक अच्छी संख्या थी। पिछड़ी राजनीति की वकालत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा को मुसलमानों का वोट तो चाहिए लेकिन मुसलमानों को हिस्सेदारी देने पर उनके अंदर की घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक चेहरा यहां साफ दिखता है। ठीक यही हाल नीतीश कुमार का साथ छोड़ने वाले शरद यादव का भी है। पार्टी छोड़ते समय क़दम से क़दम मिलाकर चलने वाले अली अनवर अंसारी को टिकट के समय शरद यादव भूल गए और किसी दूसरे को टिकट दे देते हैं। सन ऑफ मलाह मुकेश सहनी और मांझी का भी यही हाल है। उपेंद्र कुशवाहा के साथ साथ इन दोनों ने किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया। जब इन पार्टियों का चरित्र आज ऐसा साम्प्रदायिक है तो चुनाव बाद ये फिर से एनडीए के साथ नहीं चले जाएंगे, इसकी ज़मानत तेजस्वी यादव देंगे क्या?

दूसरा सवाल इन पार्टियों के तथाकथित मुस्लिम चेहरों का है। जब इनका अपना टिकट कटता है तो ये मुसलमानों के स्वघोषित रहनुमा बन जाते हैं। पूरे पांच साल इन्हें मुसलमान याद नहीं आता। टिकट कटने पर ये अपनी ही पार्टी के दूसरे मुस्लिम चेहरों के विरुद्ध ताल ठोंकने लगते हैं। अली अशरफ फातमी का टिकट कट गया और मुकेश सहनी का उम्मीदवार मधुबनी से चुनाव लड़ रहा है। विरोध ही दर्ज करना है तो अली अशरफ फातमी को चाहिए कि मुकेश सहनी के प्रत्याशी को हराएं। दरभंगा के राजद प्रत्याशी अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को हराने की कोशिश नहीं करें। फातमी को मधुबनी में तैयारी करने के लिए कहा गया था और उन्होंने तैयारी की भी थी। एक और बात, चुनाव में भाजपा और मोदी को हराना है तो तनवीर हसन और उनके समर्थक भाजपा प्रत्याशी गिरिराज सिंह के विरुद्ध अपना प्रचार करेंगे या कन्हैया के विरुद्ध!
मुस्लिम युवाओं की तरफ से भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व को लेकर इन पार्टियों के विरोध में जगह जगह सवाल उठाए जा रहे हैं। अधिकारों के प्रति उठने वाली हर आवाज़ का समर्थन होना चाहिए, लेकिन किसके लिए? ये आवाज़ हम उन चेहरों के लिए क्यों उठाएं जिन्होंने न कभी मुस्लिम हितों की रक्षा की, न कभी उनके मुंह से दो बोल निकले और न कभी उन्होंने आम मुस्लिम युवा राजनीति को जगह देने की बात की। इन चेहरों के लिए गोलबंद होना क्या ये मुस्लिम युवाओं के अंदर की अपनी साम्प्रदायिकता नहीं है? अधिकार की बात बिहार या देश के मुसलमानों के लिए होगी या किसी खास चेहरे के लिए। फिर ये आवाज़ कहां तक पहुंचेगी और इसको आम समर्थन कहां तक मिलेगा? अंसारी समाज से अली अनवर अंसारी के टिकट की आवाज़ तो उठती है लेकिन वो फिर डॉ. एजाज़ अली को भूल जाते हैं।

सेक्युलर राजनीतिक पार्टियों के अंदर की जो ये साम्प्रदायिकता है उसपर एक आम राय बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए अल्पसंख्यक समाज के अंदर से निष्पक्ष समझ बनाने और आवाज़ उठाने पर ही कोई विरोध असरदार होगा।
तेजस्वी यादव, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी सरीखे नेताओं को ये बिल्कुल स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि भाजपा को हराने के नाम पर आप आज अपनी मनमानी कर लीजिए। मुस्लिम समाज को अनदेखा कर लीजिए। लेकिन इसके बाद फिर 2020 में चुनाव है और उसके बाद भी चुनाव होंगे। आप लोगों का खुलकर विरोध होगा।
लेखक एएमयू एलुमनाई एसोसिएशन ऑफ महाराष्ट्र, मुम्बई के अध्यक्ष हैं।

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity