JMI की बुनियाद रेशमी रुमाल तहरीक के नायक शेख़ उल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन ने अलीगढ़ में रखी थी

मिल्लत टाइम्स,नई दिल्ली:वो जुमा का दिन था, 29 अक्तुबर 1920, जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के क़याम का ऐलान हुआ था। अलीगढ़ कॉलेज की मस्जिद मे जोश से भरे हुए वो छात्र और शिक्षक मौजूद थे जिन्होने ख़िलाफ़त तहरीक और असहयोग आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए अलीगढ़ कॉलेज छोड़ दिया था। इनकी तादाद कोई 300 थी। रेशमी रुमाल तहरीक के नायक शेख़ उल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन साहब के हाथ इस एदारे की संग ए बुनियाद रखी गई। जिसके बाद उनका मशहूर ख़ुतबा मौलाना शब्बीर उस्मानी ने पढ़ कर सुनाया जो कुछ इस तरह था :- “अऐ, नौनेहाल ए वतन, जब मैने देखा के मेरे दर्द के ग़मख़्वार मदरसों और ख़ानक़ाहों में कम और स्कूलों और कॉलेजों में ज़्यादा हैं, तो मैने और मेरे चंद मुख़लिस अहबाब ने एक क़दम अलीगढ़ की तरफ़ बढ़ाया। और इस तरह हमने हिन्दुस्तान के दो तारीख़ी मुक़ाम ‘अलीगढ़ और देवबंद’ का रिश्ता जोड़ा। कुछ लोगो मेरे अलीगढ़ के इस सफ़र की निंदा कर सकते हैं, लेकिन अहल ए नज़र जानते हैं के जिस क़दर मै अलीगढ़ की तरफ़ आया हुं उससे अधिक वो(अलीगढ़) मेरी तरफ़ आया है!”

वो आगे पढ़ते हैं :- “मुझे लीडरों से ज़यादा उन नौनिहाल ए वतन की बुलंद हिम्मत पर आफ़रीं और शाबाशी कहना चाहये जिन्होने इस नेक मक़सद की अंजामदेही के लिए अपनी हज़ारों उम्मीदों पर पानी फेर दिया और तहरीक तर्क मवालात (असहयोग तहरीक) पर मज़बूती के साथ क़ायम रहे! और अपनी क़ीमती ज़िन्दगी को क़ौम ओ मिल्लत के नाम पर वक़्फ़ कर दिया। मुसलमानों की शिक्षा मुसलमानों के हाथों में रहे और इसमें किसी बाहरी का दख़ल नही हो! हमारी ये कोशिश होनी चाहये के हम अपने कॉलेजोंं में युरोप के लिए सस्ते ग़ुलाम नही पैदा करें बल्के हमारे कॉलेज नमुना होने चाहये बग़दाद और क़ुर्तुबा की उन युनिवर्सिटी और मदारिस के जिन्होने युरोप को अपना शागिर्द बनाया।”

इस दिन के बारे में डॉ ज़ाकिर हुसैन साहब ने एक जगह लिखा है :- मुझे और मेरे साथियों को अलीगढ़ कॉलेज की मस्जिद में दीवार का सहारा ले कर बैठा वो मुक़द्दस शख़्स याद है, जो अंग्रेज़ों की ज़ुल्म सह कर इतना कमज़ोर हो चुका था के मजमे को ख़िताब भी नही कर सकता था। तब उनका पैग़ाम उनके शागिर्द मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी पढ़ कर सुनाते हैं! यहां याद रहे को वो जिस दीवार का सहारा लिये बैठे थे; वो ख़ाली ईंटी पत्थर की दीवार नही थी; वो एक अज़ीम उश्शान मिल्ली दीवार थी। और वो ना सिर्फ़ उन नौजवानो को मुख़ातिब फ़रमा रहे थे जो उनके सामने बैठे थे; बल्के उनका ख़िताब क़ौम की आने वाली सारी नस्लों की तरफ़ था।

ज्ञात रहे के ख़ुफ़िया तहरीक ‘रेशमी रुमाल’ के राज़फ़ाश हो जाने के बाद शेख़ उल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हे मॉल्टा भेज दिया गया। शेख़ उल हिन्द माल्टा की जेल में 3 साल 19 दिन रहे, और 8 जून 1920 को जब आप मुंबई के साहिल पर उतरे, इस्तक़बाल करने वालों मे गांधी जैसे लोग शामिल थे।

ख़िलाफ़त तहरीक में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही जमियत उल्मा ए हिन्द की दूसरे जलसे में शेख़ उल हिन्द शामिल हुए और मुल्क की आज़ादी के लिए हिंदू मुस्लिम दोस्ती और भाई चारे को बढ़ाने की तरफ़ तवज्जो दिलाया, और साथ मौलाना महमूद उल हसन साहब ने मुसलमानो को कांग्रेस और गांधी की तहरीक में शामिल होने को कहा, फिर मौलाना मुहम्मद अली जौहर के कहने पर आप अलीगढ़ गए और वहाँ 29 अक्तुबर 1920 को आपके ज़रिए जामिया मीलिया इस्लामिया की संग ए बुनियाद रखी गई।

शेख़ उलल हिंद मौलाना महमूद उल हसन को ज़िन्दगी ने मोहलत नही दी और 30 नवम्बर 1920 को आपका इंतक़ाल हो गया। उनकी मय्यत को देवबंद मे ग़ुसुल के लिये उतरा गया तो उनका बदन बदन न रह कर सिर्फ़ हड्डियो का ढाँचा रह गया था और उनकी उन हड्डियो और खाल पे सिर्फ़ हंटरो की मार के रंगें निशान थे और ये देख वहाँ मौजूद लोग रो पड़े थे।

जब शेख़ुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी कलकत्ता से देवबंद गए तो उन्होने बताया के :- “जब अंग्रेज़ो ने शेख़ उल हिंद को माल्टा जेल मे क़ैद कर रखा था तो अंग्रेज़ शेख़ उल हिंद मौलाना महमूद उल हसन को जेल के तहख़ाने मे ले जाते और लोहा की सलाख को गर्म करके शेख़ उल हिंद मौलाना महमूद उल हसन के बदन पर दाग़ते थे और उनसे कहते की महमूद उल हसन अंग्रेज़ो के हक़ मे फ़तवा दे दो”

जब शेख़ उल हिंद मौलाना महमूद उल हसन अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से बेहोश हो जाते और फिर होश मे आते तो कहते की ‘तुम मेरा जिस्म पिघला सकते हो; मैं हज़रत बिलाल हबशी रज़ी अल्लाहो अन्हो का वारिस हूं जिन को गर्म रेत के ऊपर लिटाया जाता था; सिने पर चट्टान रख दी जाती थी। मै तो ख़बीब {रज़ी} का वारिस हूं जिनके कमर के ऊपर ज़ख्मो के निशानात थे। मै तो इमाम मालिक {रह} का वारिस हूं जिनके चेहरे पर सिहाई मल कर उन को मदीने मे फिराया गया था। मै इमाम अबू हनीफ़ा {रह} का वारिस हूं जिनका जनाज़ा जेल से निकला था। मै तो इमाम अहमद बिन हम्बल {रह} का वारिस हूं जिनको सत्तर कोड़े लगाए गए थे। मै इल्मी वारिस हूं मजद्दि्द अल्फ़ सानी {रह} का, मै रूहानी वारिस हूं शाह वलीउल्ला मोहद्दीस देहेलवी {रह} का। भला मै कैसे तुम्हारी इस बात को क़बूल कर लुं ? मेरी चमड़ी उधड़ सकती है लेकिन मैं अंग्रेज़ों के हक़ मे फ़तवा नही दे सकता”
(courtesy,heritage times)

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity