बिपिन कुमार शर्मा/मिल्लत टाइम्स,नई दिल्ली:”युद्धा को युद्ध विराम और अयुद्धा को युद्ध लेकर चिंतित करती मन की विषमता परेशान करती है । जिसने लडाई नही देखी उसको लडाई की बहुत जल्दी रहती है । क्योंकि उसका ना तो बच्चा उस लडाई होगा और ना ही कोई ऐसा व्यक्ति जिससे उसके निजी सम्बंध होगे । उसको सिर्फ लडाई का लाईव देखना है । उनको लडाई के साथ होने वाले नुकसान का कोई अंदाजा ही नही होता है । साथियो महाभारत का युद्ध हमने टीवी पर देखा । लेकिन मैंने लडा है । युद्ध तो शान्ति स्थापित करने का सबसे आखिर विकल्प है । जिसके सहारे कुछ समय तक शान्ति रह सके ।
युद्ध मे इंसान इंसान को मारता है और वे इंसान भी मरते है जिनका युद्ध से कोई लेना-देना भी नही होता है । बहुत बड़े पैमाने इंसानियत की जान चली जाती है । जरा सोचिए अगर धरती पर इंसान ही नही रहेगा तो शान्ति ही रहेगी । युद्ध से इंसान नही रहेगा जमीन और आसमान तो रहेगे । फिर कौन इस जमीन का मलिक होगा ।
हमे अगर युद्ध लडना है तो शिक्षा के क्षेत्र चिकित्सा पद्धति के साथ युद्ध लडना चाहिए । ताकी इंसानियत कभी दुनिया से रुखसत ना हो सके ।”
मैं युद्ध, प्रतिशोध या हत्या का जश्न नहीं मना सकता और न ही इसे राष्ट्र के स्वाभिमान या विजय से जोड़कर देख सकता हूं।
क्या इस संसार में कोई ऐसा अभागा देश भी होगा, जहां सैनिकों की सुरक्षा के प्रति शासक की घोर लापरवाही और विफलता को ढकने के लिए युद्ध का प्रपंच रचा जाता हो, ताकि आमजन में उस ‘राजा’ का ‘पौरुष’ लांछित न हो?
ठीक इस पल में भी, जबकि देश युद्ध के रोमांच से सिहर रहा है और कथित राष्ट्रभक्त सेना के शौर्य पर आंखों में आंसू भर-भरकर जयघोष कर रहे हैं, मैं पूरी ताकत से कहना चाहता हूं कि वह शासक पूरी तरह असफल और अपराधी है, अगर उसके देश की बहुसंख्यक जनता दुखी, जर्जर, बेकार, असहाय, हताश और अवसादग्रस्त है!
वह देश किस मुंह से अपनी विजयगाथा गाएगा, जिसकी बहुसंख्यक जनता दिनोंदिन आत्महत्या के कगार पर पहुंचती जा रही है और देश के पूंजीपति उनकी दुर्दशा पर अट्टहास कर रहे हों? जिस देश का सर्वोच्च न्यायपीठ न्याय करने की जगह अत्याचार का मार्ग प्रशस्त करता हो?
वह देश किस शत्रु के पराजित होने का स्वप्न देखकर जागा है और अभी तलक अपनी अंगड़ाई रोके खड़ा है, जिसने अभी तक ठीक तरह से अपने शत्रुओं को पहचाना भी नहीं है??
दो पल ठहरकर तो सोचो, हमारा राजा कुछ ही दिन पहले शान्तिदूत बनकर घर लौटा है! उसके चेहरे से मुस्कान की सिलवटें अभी पूरी तरह मिटीं भी नहीं और रणभेरी बजने लगी! कहीं हमारे राजा के मुंह खून तो नहीं लग गया है? गिद्ध को तो लाश चाहिए, वह चाहे जिसकी हो!
इस विजय का दंभ भी हमेशा की भांति क्षणभंगुर साबित होने वाला हैे! काल के अथाह प्रवाह में विजय और पराजय कोई मूल्य नहीं रखते! किंतु मनुष्य का दुख, सुख और उसके सुकर्म हमेशा महत्व रखते हैं! क्या यह युद्ध इस देश का दुख-दलिद्दर दूर कर देगा? क्या इस युद्ध के बाद नौजवानों को शिक्षा और आजीविका मिल सकेगी? क्या इस युद्ध के बाद आम आदमी का जीवन थोड़ा-सा भी आसान हो जाएगा? अगर नहीं तो ऐसे लाखों युद्ध निरर्थक हैं। ऐसे युद्ध मनुष्य को उसकी मनुष्यता से पतित करने के सिवा और कुछ न कर सकेंगे।
या यह युद्ध भी केवल शासक की नाकामियों को छुपाने और देश में युद्धोन्माद के धुंधलके के बीच उसे दुबारा गद्दी पर बिठाने के लिए लड़ा जा रहा है, जिसमें कुछ और सैनिकों का मर जाना चन्द जुमलों के सिवा कुछ और महत्व नहीं रखता है??
विचार कठिन वक्त में संजीवनी से कम आवश्यक नहीं होते!
Bipin Kumar Sharma