1977 में जनता पार्टी की सरकार बनते ही मोरारजी देसाई ने अपने घोषणापत्र में किये वादे के अनुरूप पिछड़े वर्ग के लिए उत्थान के लिए आयोग गठन के लिए कदम उठाया और पुराने पड़ चुके काका कालेलकर आयोग की जगह बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व बी पी मंडल की अध्यक्षता में नए आयोग की घोषणा की जिसे मंडल आयोग के नाम से आम लोगों के बीच जाना गया। स्व मंडल ने अपनी टीम के साथ काम करना शुरू किया और इससे पहले कि वे अपनी रिपोर्ट तैयार कर पाते , जनता पार्टी की सरकार अपने ही बोझ और पदलोलुप सहयोगियों के कुचक्र से धराशायी हो गयी। फिर से चुनाव हुए और जनता पार्टी की पिछली भारी -भरकम जीत को देख कई राजनीतिक पंडितों के द्वारा कांग्रेस और इंदिरा गाँधी जबरदस्त तरीके से कमबैक की। सिर्फ दो साल पहले हुए चुनाव में जिस जनता पार्टी और अलायन्स ने 345 सीटें हासिल कर कांग्रेस को महज 154 सीटों पर धकेल दिया , वही 1979 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 354 सीटें बटोर ली और पदलोलुपों की पार्टी जनता पार्टी महज 31 सीट ही हासिल कर सकी। खैर , यह इस पोस्ट का विषय नहीं है।
14 जनवरी 1980 को इंदिरा गाँधी पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और तब तक बी पी मंडल अपनी रिपोर्ट भी लगभग तैयार कर चुके थे। 31 दिसंबर 1980 को मंडल कमिशन ने अपनी रिपोर्ट इंदिरा गाँधी को सौंप दिया। इंदिरा गाँधी को मंडल कमिशन की सिफारिशों को नहीं लागू करना था , सो उन्होंने नहीं किया और उस पर कुंडली मार कर बैठ गयी। इंदिरा गाँधी ने इसे क्यों नहीं लागू किया , राजनीति के छात्रों को इसे समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है। कांग्रेस का आधार वोट जो भी रहा हो लेकिन शीर्ष नेतृत्व समूह अगड़ी जातियों का ही समूह था। इक्के -दुक्के दलित और पिछड़ा चेहरा यदि था भी तो वह सिर्फ चेहरा चमकाने के लिए था , डिसिशन मेकिंग में ये लोग कोई तवज्जो नहीं पाते थे। इनके आधार वोट्स में मुस्लिम के अलावा सवर्ण जातियों का बहुत बड़ा समूह था जिसे नाराज कर मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर पाना इंदिरा के लिए इतना सहज नहीं था। मँझोली जातियाँ और दलितों के वोट्स कांग्रेस को नहीं मिलते थे , ऐसा नहीं है लेकिन ऐसे वोट्स किसी एक जगह न जाकर समाजवादी खेमों , वामपंथी खेमों में बँटे हुए थे। खैर , इंदिरा बिना कुछ कहे -सुने इस आयोग की रिपोर्ट को अनंत काल के लिए दबाने के मकसद से ठंढे बस्ते में डाल दिया।
इंदिरा ने भले इस रिपोर्ट को दबा दिया लेकिन वह वर्षों पुरानी माँगों को लेकर उठ रही आवाजों को कैसे दबा पाती ? मंडल कमिशन की अनुशंसाओं को लागू करने की माँग समाजवादी खेमों (तत्कालीन जनता पार्टी ) द्वारा होती रही और छोटे -बड़े आंदोलन होते रहे। गौरतलब है कि इस दौरान वामपंथी दलों का इस रिपोर्ट पर क्या रुख रहा होगा ? उस समय की घटनाओं का यदि गौर से अवलोकन किया जाय तो पता चलता है कि वामपंथी दलों का भी लगभग वही रवैया था कि जबतक पानी गर्दन से ऊपर न बहने लगे , मौन धारण ही श्रेयस्कर है। यह मौन इस रिपोर्ट से सहमति नहीं , असहमति के लक्षण थे।
इधर जनता पार्टी में क्या चल रहा था ? भारी -भरकम हार के बाद क्या पार्टी नीतिगत स्तर पर किसी मंथन या सुधार के दौर से गुजर रही थी ? अब इसे जो भी कहें , लेकिन हार का ठीकरा एक -दूसरे पर फोड़ने के चक्कर में जनता पार्टी के नेता सरफुट्टौवल के अलावा कुछ नहीं कर रहे थे। हार के बाद जनता पार्टी के जनसंघ वाले खेमे जिनमें वाजपेयी , आडवाणी प्रमुख थे , की दोहरी सदस्य्ता पर सवाल उठाये जाने लगे। यह माँग जोर पकड़ने लगी कि पार्टी का सदस्य रहते हुए कोई आरएसएस की भी सदस्य्ता कैसे रख सकता है और संघ की कार्यशालाओं में हिस्सा कैसे ले सकता है। यह विवाद इतना बढ़ा कि जनता पार्टी टूट गयी और जनता पार्टी का जनसंघ वाला खेमा 1980 में ही उस पार्टी से अलग होकर नए दल का निर्माण किया और भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ जिसके अध्यक्ष बने अटल बिहारी वाजपेयी। शुरू में दिखावे के लिए ही सही इस पार्टी ने अपने लिए गांधीयन समाजवाद का रास्ता चुना , हालाँकि इस पर जनसंघ और आरएसएस की विचारों का ही प्रभाव था। लेकिन फिर भी आरएसएस का इस नयी बनी पार्टी पर वह नियंत्रण नहीं था जो आज नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी पर है। कुछ सालों तक यह दल गाँधी और समाजवाद के इर्दगिर्द ही अपने संघर्ष का तानाबाना बुनता रहा लेकिन 1984 के आमचुनावों में मात्र 2 सीटे हासिल कर पाने की भारी असफलता ने इस दल के कलेवर और विचार , दिशा और दशा सब बदल कर रख दिया। हालाँकि यदि इस चुनाव से ठीक पहले इंदिरा गाँधी की हत्या नहीं हुई होती तब क्या गुणा -गणित होता , यह कहना मुश्किल है। इस दल ने गाँधी और समाजवाद के चोले को उतार फेंक उग्र हिंदुत्व की राह पकड़ ली और यही वह समय था जब आडवाणी के नेतृत्व में राममंदिर आंदोलन ने जोड़ पकड़ना शुरू किया।
उधर बाकी की जनता पार्टी क्या कर रही थी ? 1979 की हार ने इस पार्टी में कोहराम ही मचा दिया था। जैसे यह दल कुनबा – कुनबा जोड़कर बना था , वैसे ही यह बिखड़ता गया , एक दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा। उधर जनसंघ वाला खेमा भारतीय जनता पार्टी बना तो भारतीय लोक दल जिनका नेतृत्व चौधरी चरण सिंह के हाथों था , 1980 में ही अलग होकर पुनः लोकदल के नाम से नया दल बना बैठे। जनता पार्टी खत्म तो नहीं हुई लेकिन ख़त्म जैसी ही हो गयी। एक जनता पार्टी चंद्रशेखर चलाते रहे और एक तो सुब्रमण्यम स्वामी 2013 तक चलाते रहे जिसका विलय अंतत उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में कर लिया। जनता पार्टी हालत यह हो गयी कि 1984 के आम चुनाव में इंदिरा की मौत के बाद जिसमें राजीव गाँधी को 414 सीट मिले वहीँ जनता पार्टी 10 सीट , चौधरी चरण सिंह का दल लोक दल महज 3 सीट और भारतीय जनता पार्टी मात्र 2 सीटों पर सिमट कर रह गयी। जनता पार्टी की आहुति 11 अक्टूबर 1988 को तब दे दी गयी जब कांग्रेस पर बोफोर्स तोप के सौदे में सीधा राजीव गाँधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए तत्कालीन रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह अलग हुए और जनता दल नामक नए दल का गठन हुआ। जनता पार्टी का विलय इस जनता दल में हो गया और विश्वनाथ प्रताप सिंह इसके अध्यक्ष बने।
1989 के आम चुनाव में जनता दल के नेतृत्व में कई अन्य छोटी -छोटी पार्टियाँ एकत्रित हुई जिसे राष्ट्रीय मोर्चा का नाम दिया गया। जनता दल ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कई वादे किये जिसमें एक प्रमुख वादा था मंडल कमिशन की सिफारिशों को लागू करना। जनता दल को भारतीय जनता ने पसंद किया और बोफोर्स के हल्ले ने कांग्रेस को काफी नुकसान पहुँचाया। कांग्रेस 414 के टैली से धड़ाम होकर 197 पर आ गिरी। नए बने जनता दल को पहली ही बार में 143 सीट मिले। उग्र हिंदुत्व और राममंदिर के आंदोलन की नाव पर सवार होकर भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित बढ़त मिली और उसका आंकड़े पिछले चुनाव के मुकाबले 2 सीट से 85 सीट पर जा पहुँचा। चुनाव उपरांत राष्ट्रीय मोर्चा ने वाम मोर्चा की सहायता से और भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से वी पी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनायीं। 10 दिसंबर 1989 को वी पी सिंह प्रधानमंत्री बने।
सरकार बनते ही समाजवादी खेमों ने जिनमें शरद यादव , लालू प्रसाद यादव , राम बिलास पासवान जैसे प्रमुख लोग थे , वी पी सिंह पर मंडल आयोग की रिपोर्ट की अनुशंसाओं को लागू करने का दबाव बनाने लगे। उधर जनता दल के ही लहर में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें बिहार समेत अन्य राज्यों में जनता दल का जबरदस्त प्रदर्शन हुआ। बिहार, कर्नाटक , हरियाणा , उत्तरप्रदेश , ओडिसा आदि राज्यों में जनता दल की सरकार बनी। यह किन परिस्थितियों में हुआ , किसने दबाव बनाये , परदे के पीछे क्या -क्या खेल चल रहा था , इसके विस्तार में जाना भी इस पोस्ट का मकसद नहीं है। 7 अगस्त 1990 को जनता दल सरकार ने अपनी मंशा इस आयोग की रिपोर्ट को लेकर जता दी और इसके ठीक 6 दिन बाद 13 अगस्त को गवर्नमेंट आर्डर के जरिये इसके कुछ हिस्सों को लागू करने की घोषणा कर दी गयी और अगले दो दिनों बाद 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने अपने भाषण में लाल किले की प्राचीर से भी इस बात का जिक्र किया।
इसकी घोषणा होते ही असली खेल शुरू हो गए। कांग्रेस की त्योरियाँ तो चढ़ी ही , सरकार को समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी ने भी इसका प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष विरोध किया। दोनों के वजूद दाँव पर लगने वाले थे। सड़कों पर आरक्षण विरोधी और आरक्षण समर्थकों के प्रदर्शन होने लगे। पूरे हिन्दुस्तान में खासकर उतर भारतीय बेल्ट में जमकर तोड़-फोड़ और हिंसा हुई। सैकड़ों लोग मारे गए। पिछड़ी -दलित जातियाँ जो अब तक कांग्रेस , कम्युनिस्ट के झंडे ढो रही थीं , जनता दल के पीछे लामबंद होती दिखने लगी। जगह -जगह मशाल जुलूस , रैलियाँ आम बात थीं। मुझे याद है मेरे गाँव से भी एक बहुत बड़ा मशाल जुलूस निकलकर 4 किलोमीटर तक गया जिसमें वी पी सिंह जिंदाबाद , लालू यादव जिंदाबाद जैसे नारों से आसमान गूँज रहा था। भारतीय जनता पार्टी यह सब देख घबरा गयी। बड़े जतन से हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर वह 2 से 85 पर पहुँची थी और उसे अपने लिए बेहतर भविष्य दीख रहा था। लेकिन मण्डल कमिशन की सिफारिश को लागू करने की घोषणा के साथ ही उसे यह उम्मीद क्षीण नजर आने लगी। इसकी काट के लिए आडवाणी ने रथयात्रा का प्रपंच रचा। उधर कांग्रेस से नाउम्मीद सवर्ण जातियों को भी भारतीय जनता पार्टी में एक उम्मीद की किरण दिखने लगी थी। इधर आडवाणी ने रथयात्रा की घोषणा की उधर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने सरकार के इस घोषणा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस पर रोक की माँग कर दी।
आडवाणी की रथ यात्रा का बिहार में क्या हश्र हुआ , यह मालूम है. हालाँकि वी पी सिंह नहीं चाहते थे कि आडवाणी को गिरफ्तार किया जाय। क्यों नहीं चाहते थे , इसका अलग -अलग लोग अपने तरीके से जवाब देते हैं लेकिन मैं साफ़ -साफ़ कहने का आदी हूँ। वी पी सिंह को पता था कि आडवाणी उधर गिरफ्तार हुए और इधर सरकार गिरेगी। भाजपा चाहती भी थी कि उसे कोई ठोस बहाना मिले ताकि वी पी सिंह से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी जाय और मंडल आयोग की अनुशंसा जो एक गवर्नमेंट आर्डर के जरिये लागू की गयी थी , ठोस संवैधानिक अमलीजामा पहने बगैर फिर से ठंढे बस्ते में चला जाय। यदि ऐसा करने में भाजपा सफल होती है तो उसे कांग्रेस से उन सवर्ण समर्थकों को झटकने में कामयाबी मिलती जिसे अब तक लगता था कि सवर्णों का हित कांग्रेस के ही हाथ में सुरक्षित है। भाजपा को बहुत हद तक कामयाबी मिली भी। इधर लालू यादव ने आडवाणी को दबोचा , उधर वी पी सिंह की सरकार गिरी। तिस पर सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नमेंट आर्डर पर अंतिम सुनवाई तक स्टे लगा दिया।
वी पी सिंह की सरकार तो गिर गयी लेकिन राज्यों में जनतादल के क्षत्रप मजबूत होकर उभरे। एक तरफ मंडल कमिशन के उफान ने पिछड़ों -दलितों वामपंथियों के चंगुल से निकलकर को लालू , मुलायम जैसे नेताओं के पीछे गोलबंद कर दिया वहीँ सवर्ण जाति के लोग कांग्रेस के इतर भाजपा को अपना सच्चा प्रतिनिधि महसूस करने लगे। एक और वर्ग था मुसलमान। जो मुसलमान अब तक कांग्रेस के पीछे लामबंद थे , भाजपा के चढाव के बीच कांग्रेस की आक्रामकता में कमी देखकर उसका भी कांग्रेस से मोहभंग होने लगा था। शाहबानो का मामला मुस्लिमों का कांग्रेस से विश्वास दरकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा था तो अब भाजपा के उग्र हिंदुत्व के बीच लालू यादव और मुलायम सिंह यादव का आडवाणी और राममंदिर आंदोलन के करता-धर्ता से सीधा टकराना , मुस्लिम समुदाय के मन में इन क्षेत्रीय नेताओं के लिए एक सम्मान और समर्थन का भाव बटोर रहा था। रही -सही कसर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में नरसिम्हा राव की संदिग्ध भूमिका को लेकर पूरी हो गयी जिसमें कम से कम राज्यों के चुनाव में उत्तर भारत के मुस्लिम कांग्रेस को पूरी तरह छोड़ चुके थे और अपना समर्थन इन क्षेत्रीय क्षत्रपों को दे चुके थे। कांग्रेस का तम्बू बिहार , उत्तरप्रदेश , हरियाणा , झारखण्ड और अन्य राज्यों से उखड चुका था। वहीँ वामपंथी पार्टियाँ जो अब तक दलितों , पिछड़ों के लिए संघर्ष के नाम पर वोट पाकर सवर्ण चेहरों को सदन में भेजने का जो कारनामा अब तक कर रही थी , उसकी भी दुकानें बंद होने के कगार पर पहुँच गयी। मंडल के बाद उभरे राजनीतिक परिदृश्य में वामपंथी पार्टी के वैसे समर्थक जो सवर्ण वर्ग से थे , भाजपा का दामन थम चुके थे। दलित ,पिछड़े, मुस्लिम समर्थक लालू। मुलायम जैसों का हाथ थाम चुके थे। वामपंथी दलों का भी तम्बू मंडल की सुनामी में बह गया और बहकर इतनी दूर चला गया कि लाख चाहने के बाद भी नया आशियाना बसाया न जा सका।
Lal Babu Lalit, लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील है. ये लेखक के निजी और व्यक्तिगत विचार हैं अतः इसे पढते समय पाठक जन अपने विवेक का प्रयोग करें, और इस लेख को पढने के बाद अपनी प्रतिक्रिया जरूर देवें।