मौलाना अबुल मोहासिन मोहम्मद सज्जाद साहब का महत्व और अहमियत: आज भी बिहार में महसूस होती है

मरना और जीना दुनिया के रोज़ाना के कारोबार में है, कौन नही मरा और कौन नही मरेगा, आज उसकी तो कल हमारी बारी है, इस पर भी अज़ीज़ों और दोस्तों की मौत पर रोने वाले रोते हैं, उनकी याद में मातम करते हैं, उनकी एक एक ख़ूबी को याद कर नोहा पढ़ते हैं, लेकिन कुछ मौत ऐसी होती है कि ख़बर सुन कर ज़ुबान बंद हो जाती है, आँसू सूख जाते है, दिल की धड़कन बढ़ने के बजाए घटने लग जाती है, अंदर ही अंदर घुटन महसूस होने लगता है, जी नही चाहता कि कुछ बोल कर जी का भड़ास निकाले और आँसू बहा कर ग़म दूर करें। मौलाना अबुल मोहासिन मोहम्मद सज्जाद साहब की मौत की ख़बर जब 23 नवम्बर 1940 (21 शव्वाल 1359 हिजरी) की शाम को मिली तो जिस्म और दिमाग़ पर यही कैफ़ियत तारी हो गई।

मौलाना सज्जाद की विलादत ज़िला नालंदा के पनहस्सा नाम के गाँव में हुई थी, मौलाना वहीद उल हक़ साहब के क़ायम किए हुए मदरसे में तालीम की शुरुआत हुई और फिर इलाहाबाद के मदरसा सुभहानिया में अपनी तालीम मुक्कमल की और वहीं तदरीस का काम चालू कर दिया। गया में मदरसा अनवार उल उलूम की बुनियाद मौलाना अब्दुल वाहब के साथ मिलकर डाली गयी, मौलाना सज्जाद मदरसा अनवार उल उलूम में हर साल जलसा करवाते जिसके मुल्क भर से उल्मा को बुलाया जाता।

मौलाना सज्जाद को सियासत का ज़ौक़ जंग अज़ीम में तुर्की के हार के बाद हुआ, वो उस वक़्त इलाहाबाद में थे उनके शागिर्द अंग्रेज़ी अख़बार से ख़बरें पढ़ कर सुनाते, आग रोज़ बा रोज़ भड़कती जाती, मौलाना आज़ाद के अल हिलाल ने इस आग में पेट्रोल डाल दिया और मौलाना सज्जाद ने मौलाना अबुल कलाम के कलाम पर लब्बैक कहने में देरी नही की। 1919 में तहरीक ए ख़िलाफ़त के साथ साथ मौलाना के क़दम सियासत में बढ़ते चले गए, 1920 में मौलाना अब्दुल बारी साहब फ़िरंगी महली और हकीम अजमल ख़ान साहब की कोशिश से क़याम हुए जमियत उल्मा दिल्ली की बुनियाद पड़ी, मौलाना सज्जाद इसके शामिल होने वाले में सबसे आगे थे, बिहार में ईमारत शरिया का क़याम इनकी सबसे बड़ी करामत थी।

मौलाना सज्जाद की सबसे बड़ी ख़्वाहिश थी कि उल्मा मैदान ए सियासत में आए और क़ौम की रहबरी करें, मुसलमानो में दीनी तँज़ीम क़ायम हो, तमाम तबलीगी, मज़हबी व तालीमी काम तंंज़ीम के ज़रिए किया जाए, दारूल क़जा की बुनियाद डाली जाए, बैतूल माल का क़याम किया जाए। मौलाना ने अपने ज़िंदगी के आख़िरी बीस साल इसी में लगा दिया। मौलाना की सबसे बड़ी खसुसियत ये थी कि मौलाना राह और मंज़िल के फ़र्क़ को समझते थे, इसलिए राह के लुत्फ़ में फँस कर कभी मंज़िल से हटना गवारा नही किया, जज़्बा ए आज़ादी की पूरी लगन के बाद भी वो कभी कांग्रेस या उनकी हुकूमत के ग़लत फ़ैसले पर ख़ामोशी अख़्तियार नही की।

मौलाना सज्जाद का वजूद सारे मुल्क के लिए ख़ास था मगर हक़ीक़त ये है कि वो बिहार की तनहा दौलत मौलाना सज्जाद थे, बिहार में जो कुछ तालीमी, तबलीगी, तंज़ीमी, सियासी और मज़हबी तहरीक की चहल पहल थी वो सब मौलाना सज्जाद के ज़ात से थी, वही एक चिराग़ था जिससे सारा बिहार रौशन था, वो वतन की जान तो बिहार की रूह थे, वो क्या मरे सारा बिहार मर गया। मौलाना के जिस्म पर खद्दर का साफ़ा, खद्दर के कुर्ते, पैर में देशी जूते ही होते थे। उनकी ज़िंदगी सादा थी, ग़ुरबत की ज़िंदगी थी, घर ख़ुशहाल ना था, सफ़र मामूली सवारियों में और मामूली दर्जे के डिब्बे में होता था, उनका दिन कहीं गुज़रता तो रात कहीं, कहीं सैलाब आए, आग लगे, लोगों पर झूठे मुक़दमे डाले गए हों, कहीं क़ुर्बानी का झगड़ा हो मौलाना पहुँच जाते, मामले की सचाई जान लोगों की मदद करते।

बिहार में ज़लज़ले के दौर में मौलाना ने जिस तरह काम किया वो एक मिसाल है, एक एक गाँव में जाकर लोगों की मदद करने से आप पीछे नही हटे। हर लीडर के पास तीन चीज़ में से एक होती है दौलत, तक़रीर या क़लम लेकिन मौलाना सज्जाद इन तीनो चीज़ से ख़ाली थे, उनके पास जो कुछ था वो बस अख़लाक़ था जो उनकी हर कमी को पूरा कर देता। मौलाना उन इलाक़ों में जाते जहाँ जाना कोई गवारा नही करता, उत्तर बिहार के इलाक़े मलेरिया के चपेट में थे, लोग वहाँ से भाग रहे थे, और मौलाना उत्तर बिहार का सफ़र कर रहे थे, लोगों की मदद में आगे आगे थे, मौलाना की ज़िंदगी का आख़िरी सफ़र भी उत्तर बिहार था, जहाँ मलेरिया ने उन्हें भी चपेट में ले लिया, जो उनकी मौत की वजह बनी।

मार्च 1941 में सैयद सुलैमान नदवी साहब द्वारा लिखे गए इस बात का हिन्दी तर्जुमा Abdur Rasheed साहब ऩे किया है।

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