अशफाक कायमखानी।जयपुर।
तत्तकालीन वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ पनपे जन विरोध के बावजूद छ: माह पहले हुये राजस्थान विधानसभा चुनाव मे बहुमत के किनारे पर अटकी कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने हालात से सबक लेने की बजाय बाहरी समर्थन से सरकार गठित होने पर दो पावर सेंटर के मध्य उलझ कर लोकसभा चुनाव मे एक दूसरे के समर्थक उम्मीदवारों को धूल चटाने की अंदर ही अंदर की गई कोशिशो से लोकसभा चुनाव मे कांग्रेस के सभी उम्मीदवार भाजपा उम्मीदवारों के सामने धूल चाट गये।
राजस्थान की गहलोत सरकार के मंत्रिमंडल के दो दलित सदस्यों को छोड़कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट सहित अन्य सभी मंत्रियों के विधानसभा क्षेत्रो मे लोकसभा उम्मीदवार बूरी तरह पिछड़ने के बावजूद मंत्री लालचंद कटारिया के अलावा किभी भी मंत्री ने नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुये त्याग पत्र देने तक का नाटक करने का साहस नही जूटा पाये। जबकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुये त्याग पत्र देकर आज तक उस पर अड़े होने के बावजूद उनके किसी एक भी कांग्रेस नेता ने अनुशरण करने की हिम्मत दिखाने का दिखावा तक नही किया।
कांग्रेस माने या ना माने लेकिन राजस्थान मे सरकार व पार्टी स्तर पर कांग्रेस पूरी तरह अशोक गहलोत व सचिन पायलट नामक दो धड़ो मे ऊपर से लेकर निचे तक विभक्त हो चुकी है। उक्त दो पावर सेंटर व्यवस्था को खत्म कर अगर एक पावर सेंटर कायम नही हो पाया तो कांग्रेस सरकार अगले कुछ महीने बाद गिर कर प्रदेश मे कांग्रेस की हालत यूपी, बिहार व बंगाल की तरह होने की पटरी पर चढ सकती है। सरकार का इकबाल गायब हो चला है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बीना राजनीतिक माइलेज लिये चुपके से अच्छी व प्रभावी योजनाओं के चालू करने के बावजूद पार्टी राजनीतिक फायदा नही उठा पा रही है। उपमुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट को राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सोनिया गांधी व प्रियंका गांधी का वरदहस्त होना राजनीतिक हलको मे माना जाता है।
दौसा व अजमेर से सांसद रहे सचिन पायलट को विधानसभा चुनाव जीतने के लिये अपने लोकसभा क्षेत्र की सीटो की बजाय परम्परागत मुस्लिम सीट रही टोंक को चूनना पड़ा। जिससे उनके राजनीतिक जनाधार व मजबूती का आंकलन होता है। लोकसभा चुनाव मे करारी हार के बावजूद पायलट ने अपने पिता राजेश पायलट की बरसी पर अधिकाधिक तादाद मे कांग्रेस विधायक व नेताओं के बरसी स्थल पर जमा कर अपनी राजनीतिक ताकत दर्शाने मे व्यस्त देखा गया। जबकि अशोक गहलोत अपना मुख्यमंत्री पद बचाये रखने के लियै जयपुर-दिल्ली का चक्कर लगा रहे है। गहलोत की लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद अभी तक राहुल गांधी से वार्ता ना होना भी राजनीतिक हलको मे काफी चर्चा व चिंता का विषय बना हुवा है।
1998 मे गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार स्तर पर किसी तरह का विरोध नही पनपने के लिये उनके द्वारा विधायक व विधानसभा के उम्मीदवार रहे को उनके क्षेत्र का एक तरह से राजा घोषित करके उनकी इच्छा बीना उनके क्षेत्र मे पत्ता भी नही हिलने की निती से वो पूरे समय सरकार तो चलाते रहे लेकिन सत्ता के नशे व मिली खूली छूट के कारण मतदाताओं मे विधायकों के प्रति बढे विरोध के कारण अगली दफा जनता ने उनहे हराकर ही दम लिया। पहले दफा 1998 मे 156 सीट पाकर कांग्रेस के सरकार बनाई पर 2003 मे वो मात्र 56 सीट पर आ टीकी। इसी तरह 2008 मे 96 सीट जीतकर बसपा व निर्दलीय की मदद से कांग्रेस ने सरकार बनाई ओर फिर 2013 के चुनाव मे 21 सीट पर कांग्रेस आकर टीकी। अब 2019 मे 99 व फिर एक सीट ओर जीतकर 100 सीट पर सरकार कांग्रेस की चल रही है। जिस सरकार का पांच साल पुरा करना मुश्किल दिखाई दे रहा है।
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राज्य मे सरकार होने के बावजूद लोकसभा की सभी पच्चीस सीटे हारने पर कांग्रेस पार्टी के अंदर ही अंदर मुख्यमंत्री गहलोत के खिलाफ ज्वार भाटा उठने लगा तो गहलोत ने उसे शांत करने के लिये प्रदेश के स्थानीय निकाय व पंचायत के नवम्बर व फरवरी मे होने वाले चुनाव के ठीक पहले डिलिमिटेसन करने के आदेश करके कुछ समय के लिये नेताओं व प्रदेश के तमाम कार्यकर्ताओं को इसी मे व्यस्त कर दिया है। लेकिन सभी पच्चीस लोकसभा उम्मीदवारो से प्रभारी महामंत्री अविनाश पाण्डेय के मिलकर फीडबैक लेने के समय सभी के मुहं से समान रुप से निकली एक बात की उनकी राजस्थान की सत्ता मे भागीदारी की विधायको की तरह व्यवस्था तय हो। इस बात से सरकार चलाने के लिये मुख्यमंत्री पर दवाब बढेगा।
कुल मिलाकर यह है कि राजस्थान सरकार मे एक से अधिक पावर सेंटर होने से धड़ेबंदी को बढावा मिलने के अलावा लोकसभा चुनाव मे हार के बाद कांग्रेस नेता व वर्कर के मनोबल मे भारी गिरावट आने के अतिरिक्त केंद्र मे भारी बहुमत वाली भाजपा सरकार आने के बाद पूरे पांच साल गहलोत सरकार का चलना मुश्किल नजर आ रहा है। पंचायत व स्थानीय निकाय मे डिलिमिटेसन करने की घोषणा से पहले से उठे ज्वार भाटा को शांत करने की कोशिश माना जा रहा है। लेकिन यह स्थाई हल कतई नही है।