भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की वकालत करने वाले जज को तुरंत इस्तीफ़ा देना चाहिए

भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की वकालत करने वाले जज को तुरंत इस्तीफ़ा देना चाहिए

जज जस्टिस सुदीप रंजन सेन

मेघालय हाई कोर्ट के जज जस्टिस सुदीप रंजन सेन ने सफाई दी है कि भारत का संविधान धर्म निरपेक्षता की बात करता है और देश का बंटवारा धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय या भाषा के आधार पर नहीं होना चाहिए.

मिल्लत टाइम्स,नई दिल्ली: जस्टिस सेन ने 14 तारीख को अपने आदेश से जुड़ी सफाई जारी की जिसमें उन्होंने लिखा, “धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल स्तंभों में है और मेरे आदेश को किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा या उसके संदर्भ में नहीं समझा जाना चाहिए.”

इससे पहले 10 दिसंबर को नागरिकता सर्टिफिकेट जारी करने से जुड़े एक मामले की सुनवाई के बाद उन्होंने जो आदेश दिया उसमें उन्होंने लिखा था कि भारत को हिंदू राष्ट्र होना चाहिए था.

आदेश में लिखा था, “आज़ादी के बाद भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था. पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक देश घोषित किया और इसी तरह भारत को भी हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था, लेकिन ये एक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहा.”

जस्टिस सेन के आदेश को लेकर विवाद छिड़ा और कई हलकों में इसकी आलोचना हुई. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने कहा कि ये संविधान की अवधारणा के विपरीत है.

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दलित नेता जिन्नेश मेवाणी और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी इसकी आलोचना की.
जिन्नेश मेवाणी ने कहा कि इससे साफ संदेश मिल रहा है कि सिर्फ़ एक तबके के लोगों के लिए ही न्याय है. प्रशांत भूषण ने कहा कि इस तरह के बयानों से न्यायपलिका पर लोगों का भरोसा कम होगा.

ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि भारत विभिन्न संप्रदायों के लोगों से मिलकर बना एक देश है जो कभी इस्लामिक राष्ट्र नहीं बनेगा.

इस मुद्दे पर संविधान विशेषज्ञ एजी नूरानी का कहना है कि जस्टिस सेन का आदेश भारत के संविधान का उल्लंघन है. पढ़िए, उनका नज़रिया –
जस्टिस सेन ने 10 दिसंबर को दिए अपने आदेश में भारत के हिंदू राष्ट्र होने का समर्थन किया था. इसके बाद उन्होंने इस पर अपनी सफाई भी दी है लेकिन उनका आदेश दो तरीके से भारतीय संविधान का उल्लंघन है.

पहला तो ये कि संविधान की प्रस्तावना में ही ये घोषणा की गई है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है. जस्टिस सेन के सामने हमेशा ही ये रास्ता खुला है कि वो अपने पद से इस्तीफ़ा दें और उसके बाद भारत के हिंदू राष्ट्र होने का समर्थन करें.

एक महत्वपूर्ण पद पर आसीन होकर (एक बेंच का हिस्सा होते हुए) वो इस तरह की बात नहीं कर सकते क्योंकि अगर वो न्यायपालिका में किसी भी पद पर काम करना स्वीकार करते हैं तो वो पहले ये शपथ लेते हैं कि वो संविधान का पालन करेंगे.

दूसरा ये कि उनका शपथ लेकर अपने पद पर काम करना उन्हें इस बात कि बाध्य करता है लोगों में भेदभाव ना करें और सभी से समान व्यवहार करें.

जज की परिभाषा के आधार पर देखें तो अगर एक जज हिंदू राष्ट्र के हिमायती हैं तो वो पक्षपात कर रहे हैं.
क्या ग़लत किया जज ने
वो इस तथ्य से कतई अनजान नहीं हो सकते कि ये एक ऐसा मुद्दा है जिस पर राजनीतिक पार्टी बीजेपी और अन्य पार्टियों में मतभेद हैं. एक तरफ जहां बीजेपी हिंदुत्व की समर्थक है अन्य पार्टियां इसके विरुद्ध खड़ी हैं.

अपने बयान के कारण वो आज उसी जगह पर हैं जिसके बारे में एक बार ब्रितानी जज जस्टिस लॉर्ड डैनिंग ने कहा था कि “मैदान में उतरे भी और फिर विवाद की वजह से उड़ रही धूल से अंधे भी हो गए.”

उनके ख़िलाफ़ महाभियोग का प्रस्ताव लाया जाना चाहिए या नहीं ये और बात है लेकिन इसमें दोराय नहीं कि उन्होंने उन लोगों का भरोसा खो दिया है जो संविधान पर भरोसा करते हैं. हालांकि ये उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके ख़िलाफ महाभियोग लाया जाएगा.

मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं. 1981 में कोलंबिया की सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस टॉमस बर्गर को उनके पद से हटा दिया गया था. देश के वरिष्ठ 27 जजों वाली कनाडाई ज्यूडिशियल काउंसिल ने फ़ैसला सुनाया, “राजनीतिक मसलों से संबंधित ऐसे मामलों पर जस्टिस बर्गर का अपनी राय रखना अविवोकपूर्ण था जिन पर पहले ही विवाद है.”

इस मामले का जिक्र कई बार अदालतों में किया जाता है.
हिंदू राष्ट्र पर जस्टिस सेन का हालिया बयान इसी वाकये की श्रेणी में सटीक बैठता है. ख़ास कर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि जस्टिस सेन ने ना तो इसके लिए सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल क्या ना ही छिपे शब्दों में ऐसा कुछ कहा. उन्होंने साफ तौर पर अपने शब्दों में हिंदू राष्ट्र की हिमायत की.

‘राष्ट्र सर्वोच्च है और राष्ट्र का नाम हिंदू राष्ट्र है’
क्या सनातन संस्था ‘उग्र हिंदुत्व’ की वर्कशॉप है?
कनाडा के चीफ़ जस्टिस से जस्टिस टॉमस बर्गर के ख़िलाफ़ शिकायत कनाडा फेडेलर कोर्ट के एक दूसरे जज ने थी. ये जज कनाडाई ज्यूडिशियल कमिटी के चेयरमैन थे.

जस्टिस सेन के बयान से नाराज़गी इस उदाहरण के मद्देनज़र समझी जा सकती है.
न्यायपालिका से संबंधित क़ानून (जजेस एक्ट) के तहत कनाडाई ज्यूडिशियल काउंसिल का गठन किया गया था. ये दुर्भाग्य की बात है कि भारत में जजों के लिए इस तरह की कोई अनुशासनात्मक समिति नहीं है.

और रह बात भारतीय जजों की तो वो अपनी ताकत, अथॉरिटी और सम्मान को ले कर कभी-कभी संवेदनशील हो जाते हैं.
जस्टिस बर्गर ने खुद के बचाव की कोशिश की थी. उनका कहना था, “जो मैंने किया वो अपारंपरिक था लेकिन ये किसी भी मायने में राजनीति की तरफ इशारा नहीं था.”

उनकी इस दलील को बेतुकी माना गया था और सभी ने से खारिज कर दिया था. उन्होंने कई मामलों का ज़िक्र करकते हुए इस पर लंबी दलील दी थी लेकिन उसे माना नहीं गया.

ज्यूडिशियल काउंसिल ने इस मामले में जांच करने के लिए जीन जजों की एक समिति बनाई. इस समिति की रिपोर्ट मे कहा गया, “कानून के इतिहास से जो सिद्धांत उभरता है वो ये है कि राजनीतिक और क़ानूनी दायरे अलग हैं और इन्हें स्पष्ट रूप से अलग ही रहना चाहिए और संसदीय लोकतंत्र का इस मौलिक आधार का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए.”

क्या ये दलील भारतीय जज पर भी लागू नहीं की जानी चाहिए?
सफ़ाई स्वीकार्य नहीं
समिति का कहना था, “न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शक्तियों को अलग करने के लिए किए गए लंबे संघर्ष का इतिहास ये बताता है कि न्यायाधीशों को राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र होना चाहिए. साथ ही राजनेताओं को न्यायिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र होना चाहिए.”

“इसके साथ ही ये महत्वपूर्ण है कि न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर लोगों का विश्वास कायम रहे.”

जस्टिस बर्गर के केस में रिपोर्ट में कहा गया कि उन्होंने राजनीतिक रूप से संवेदनशील विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए अपने कार्यालय को इस्तेमाल किया.

सार ये है कि इस ऐतिहासिक मामले का हर शब्द टिप्पणी करने वाले हाई कोर्ट के जज पर भी लागू होता है.
रिपोर्ट में कहा गया, “जज का यह तर्क या बहाना स्वीकार्य नहीं है कि उसने अंतरात्मा के आधार पर कोई बात कही. हर राजनीतिक विषय पर जजों के अपने निजी विचार हो सकते हैं. अगर जस्टिस बर्गर के विचारों का स्वीकार किया जाए तो हो सकता है बाक़ी जज ऐसे बयान देने लगेंगे जो एक-दूसरे से अलग होंगे.”

अगर जज एक-दूसरे से सार्वजनिक तौर पर बहस करने लगेंगे तो जनता के मन में उनके प्रति सम्मान पर क्या असर होगा?
ऊपर से राजनेता और मीडिया ख़ामोश नहीं रहेंगे. वे भी अखाड़े में कूद पड़ेंगे जज को अपने बयान की सफ़ाई में इस तरह से उतरना पड़ेगा मानो वह ख़ुद उस विवादित विषय में एक पक्ष हों.

ऐसे में इस मामले (मेघालय हाई कोर्ट के जज वाले) में अगर कुछ नहीं होता है तो न्यायिक स्वतंत्रता और मर्यादा को नुक़सान पहुंचेगा. ऐसा होने से रोकना है तो किसी को सुप्रीम कोर्ट जाना होगा और मांग करनी होगी कि ग़लती करने वाले इस जज के संबंध में उचित क़दम उठाए जाएं.

सभी को करनी चाहिए आलोचना
साथ ही बार एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया को बोलना चाहिए. अफ़सोस है कि मीडिया इस विषय पर ख़ामोश है. मीडिया, बार और बेंच को इसकी निंदा करनी चाहिए.

अगर कोई जज किसी महत्वपूर्ण विषय पर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना नहीं कर पा रहा है और उसे लगता है कि उसे इस विषय में बोनला चाहिए तो उसे जज के तौर पर बात नहीं करनी चाहिए.

अगर वह चाहता है कि किसी तरह का विवाद खड़ा न हो तो उसे इस्तीफ़ा देना चाहिए और फिर अखाड़े में उतरना चाहिए ताकि बाद में न्यायपालिका के बजाय बात उसी पर आए.

ऐसे में इन जज को शालीनता से पद छोड़ देना चाहिए. जो कुछ उन्होंने कहा है, उनके शब्दों ने उन्हें हाई कोर्ट बेंच में बने रहने लायक नहीं छोड़ा है.

उन्होंने 14 दिसंबर को अपने बचाव में जो बातें कहीं, उनका भी कोई मतलब नहीं है. हिंदू राष्ट्र की वकालत करने का मतलब यह कहना है कि संविधान ग़लत है.

ऐसा ही आरएसएस कहता है कि ये संविधान तो अंग्रेज़ी है और हमारा अपना स्वदेशी संविधान होना चाहिए.

इस विषय में डॉक्टर बीआर आंबेडकर की वह बात याद आती है जो उन्होंने ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ़ इंडिया में लिखी थी- “हिंदू राष्ट्र बनना भारत के लिए विनाशकारी होगा.”

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity