अल्पसंख्यक विरोधी अति राष्ट्रवादी राजनीति ने तबाह किया श्रीलंका

नई दिल्ली  (इब्न अली) श्रीलंका तबाह होने की कगार पर है हालत ये है कि श्रीलंका के पास इस समय कोई स्थिर राजनीतिक नेतृत्व नहीं है। आर्थिक तंगी के कारण पिछले कई महीनों से श्रीलंका की जनता सड़कों पर है और लगातार सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही है जिससे पूरे श्रीलंका में अराजकता की स्थिति बनी हुई है।

दुनिया को श्रीलंका के हालात की गंभीरता का अंदाजा उस समय हुआ जब जनता के दबाव के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने पूरी कैबिनेट ही भंग कर दी इतना ही नहीं इसके कुछ समय बाद राजपक्षे को भी अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। जनता का गुस्सा फिर भी शांत नहीं हुआ गुस्साई जनता ने राजपक्षे के पैतृक निवास को आग के हवाले कर दिया परिणामस्वरूप राजपक्षे को भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी।

सवाल ये पैदा होता है कि श्रीलंका की इस तबाही का कारण क्या है ? श्रीलंका को क़रीब से समझने पर पता चलता है कि ये सब अचानक नहीं हो रहा श्रीलंका एक लम्बे समय से गलत आर्थिक नीतियों पर चल रहा था ।

श्रीलंका पर विदेशी क़र्ज़ लगातार बढ़ रहा था वहीँ विदेशी मुद्रा भण्डार कम होता जा रहा था। इन सब का ज़िम्मेदार यदि कोई है तो वो है राजपक्षे परिवार क्यूंकि एक लम्बे समय तक श्रीलंका पर इस परिवार का एकछत्र राज रहा है। तो क्या श्रीलंका में राजशाही है ? जी नहीं ! श्रीलंका एक लोकतान्त्रिक देश है राजपक्षे परिवार को श्रीलंका की सत्ता यहां की जनता के आशीर्वाद से ही मिलती रही है, ‘ब्रांड राजपक्षे’ को श्रीलंका की जनता हाथों हाथ लेती रही है।

आपको जानकार हैरानी होगी कि महिंदा राजपक्षे आज श्रीलंका की जिस जनता से छिपते फिर रहे हैं उसी जनता ने आज से क़रीब तीन साल पहले 2019 में उन्हें प्रचंड बहुमत दे कर एक बार फिर उनमें अपना विश्वास जताया था। राजपक्षे श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को संभाल नहीं पा रहे हैं ,इसके संकेत बहुत पहले से दिखने लगे थे, बावजूद इसके श्रीलंका बार बार राजपक्षे को ही अपना नेता चुनता रहा। आखिर ऐसा क्यों ? इसे समझने के लिए श्रीलंका की राजनीति को समझना होगा। श्रीलंका में बौद्ध या सिंहली बहुसंख्यक हैं तथा तमिल , मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं ।

जानकारों का मानना है कि श्रीलंका में सिंहली समुदाय ने अपनी बहुसंख्या के बल पर शासन पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास किया तथा कई ऐसे कदम उठाये जिनसे अल्पसंख्यको को सत्ता में उचित हिस्सेदारी नहीं मिली और उनके हितों की हानि हुई। इतिहास की बात करे तो श्रीलंका में सिंहली समुदाय और तमिल समुदाय के बीच लगभग दो दशक तक हिंसक गृहयुद्ध चला है जो 2009 में समाप्त हुआ था। गृहयुद्ध के बाद भी तमिल समुदाय को अपने हक़ के लिए संघर्ष करना पड़ा है |

इन सब के बीच श्रीलंका के मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी अपनी धार्मिक पहचान के कारण देश के बहुसंख्यकों के निशाने पर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में श्रीलंका के अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को बहुसंख्यकों के विरोध एवं हिंसा का सामना करना पड़ा है।

उदहारण के लिए 2013 में श्रीलंका के बौद्ध बहुसंख्यकों द्वारा हलाल मीट के बॉयकॉट का एलान किया गया इसके साथ विदेशी धार्मिक प्रचारकों को भी देश छोड़ने को कहा गया। धर्म परिवर्तन के ज़रिये देश की जनसांख्यिकीय में बदलाव के आरोप चलते मुस्लिमों एवं ईसाईयों को हिंसा का सामना करना पड़ा , भीड़ द्वारा उनके दुकानों मकानों में तोड़-फोड़ के कई मामले सामने आये।

मई 2019 में राजधानी कोलम्बो से महज़ 100 किलोमीटर की दूरी पर कई मस्जिदों और मुस्लिम समुदाय की दुकानों पर हमले की खबरें मीडिया में छाई रहीं। बीते साल अक्टूबर में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने ” From burning houses to burning bodies: Anti-Muslim violence, discrimination and harassment in Sri Lanka ” के नाम से अपनी एक रिपोर्ट बताया था कि श्रीलंका में मुस्लिम समुदाय के लोगों को भेदभाव , उत्पीड़न और हिंसा का सामना कर पड़ रहा है। माना जाता है कि मुसलामानों और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाली हिंसा को देश की सरकार का मौन समर्थन प्राप्त रहा है।

श्रीलंका सरकार के कुछ क़दम इस दावे को मज़बूती प्रदान करते हैं। क़रीब एक साल पहले श्रीलंका की सरकार ने कट्टरता से लड़ाई के नाम पर क़रीब 1000 मदरसों को बंद करने का आदेश जारी किया था और बुर्का को राष्ट्र्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए बैन कर दिया था। इसके साथ ही कोरोनाकाल में श्रीलंका सरकार ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को जबरन दाह संस्कार करने पर मजबूर किया था। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही इस हिंसा और सरकार द्वारा उसके मौन समर्थन ने श्रीलंका के टूरिज़्म सेक्टर को बुरी तरह प्रभावित किया और कोविड-लाकडाउन ने इस सेक्टर की कमर ही तोड़ दी।

गौरतलब है टूरिज्म श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण पिलर है टूरिज्म सेक्टर के कमज़ोर होने से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। इसके अतिरिक्त यदि श्रीलंका के पिछले चुनाव का विश्लेषण तो मालूम पड़ता है कि राजपक्षे परिवार की राजनीति साम्प्रदायिकता और उग्र राष्ट्रवाद के इर्द गिर्द ही घूमती रही है। साफ़ तौर पर मालूम पड़ता है अपनी खराब नीतियों से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को तबाह करने वाले राजपक्षे ने लम्बे समय तक सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाये रखने के लिए जनता का ध्यान श्रीलंका की आर्थिक बदहाली से हटा कर उन्हें अपनी अल्पसंख्यक विरोधी राष्ट्रवादी राजनीति के अफीम में ही मस्त रखा है।

अब जब स्थिति इतना विकराल रूप ले चुकी कि आम जनता को खाने पीने की रोज़मर्रा की चीज़ों से लेकर दवाइयों और पेट्रोल-डीज़ल के लिए दर दर के धक्के खाने पड़ रहे हैं तब लोगों पर से धर्म की धधकती राष्ट्रवादी राजनीति का नशा उतर चुका है लेकिन ये नशा इतना खतरनाक था कि इसे उतारने के लिए श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को अपनी आहुति देनी पड़ी।

संक्षेप में इतना कि ब्रांड राजपक्षे का पतन हो गया है और इस पतन में दुनिया भर की सत्ताओं के लिए एक स्पष्ट सन्देश है , ” प्रचंड राष्ट्रवाद और अल्पसंख्यक विरोध पर टिकी बहुसंख्यको की लामबंदी वाली राजनीति अधिक टिकाऊ नहीं होती और जब आम जनमानस पर आर्थिक तंगी की मार पड़ती है तो इस तरह की राजनीति दम तोड़ देती है।”

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