नई दिल्ली: पिछले दिनों बदनाम ज़माना वसीम रिज़वी ने आखिरी रसूले खुदा हज़रत मुहम्मद {स.अ.व.}पर निहायत घटिया पुस्तक का विमोचन करवाया इस पुस्तक में खुल कर न सिर्फ इस्लामिक मान्यताओं का मज़ाक़ उड़ाया गया है
बल्कि कुतर्कों के अम्बार से पैगंबर हज़रत मुहम्मद स अ व पर ऐसी ओछी और गंदी टिप्पणियां की गयीं हैं जो किसी भी सभ्य समाज को स्वीकार्य नहीं हो सकती। ऐसी हरकत के बाद वसीम रिज़वी के मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल उठना लाज़िमी है। मुसलमानो में वसीम रिज़वी को लेकर सख्त गुस्सा पाया जा रहा है , जो की बिलकुल जायज़ है वे इसे ‘रसूल की शान में गुस्ताखी ‘ (पैगम्बर हज़रत मुहम्मद {स.अ.व.} का अपमान ) मान रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अधिकांश रूप से सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाला एक वर्ग ऐसा है जो वसीम रिज़वी की इस हरकत को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ के अंतर्गत उसका मौलिक अधिकार मानती है।
ऐसी स्थिति में कुछ सवाल हर समझदार नागरिक के सामने खड़े होते है जैसे ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है क्या ? क्या ये स्वतंत्रता असीमित है ? क्या किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आता है ? इन सवालों के जवाब के लिए कानून और संविधान के पन्नो को पलटने के बाद क्या कुछ मिला उसे समझने का प्रयास करते हैं –
किसी देश का लोकतंत्र कितना मज़बूत है इसका पता इस बात से लगाया जा सकता है की वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें कितनी गहरी हैं , यही वजह है की लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बनाया गया , इसके तहत लिखित और मौखिक रूप से अपना मत प्रकट करने हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान किया गया है। अतः भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है।
क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सीमा है ? जी हाँ ! अभिव्यक्ति की आज़ादी असीमित नहीं है संविधान के इसी अनुच्छेद में इसे सीमित करने के कुछ आधार बताये गए जैसे झूठी निंदा , मानहानि , अदालत की अवमानना या ऐसी कोई बात जिससे नैतिकता को ठेस पहुंचती हो या राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती हो या जो देश को तोड़ती हो ऐसी स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है।
तो क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की अनुमति दी जा सकती है ? अगर संविधान के अनुच्छेद 19 को ध्यान में रखें तो ऐसा करने की अनुमति नहीं दी सकती क्योंकि इसके परिणाम देश को तोड़ने वाले हो सकते हैं , जहाँ पर संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा को तय करने की वकालत करता है। यहाँ पर हमें ध्यान में रखना चाहिए की किसी की धार्मिक भावनाओं को जान बूझ कर ठेस पहुंचाने वाले के लिए हमारे कानून में अलग से प्रावधान किया गया है।
आईपीसी की धारा 295 के अंतर्गत किसी की भी धार्मिक भावनाओं को जानबूझ कर ठेस पहुंचाना अपराध माना गया है ऐसा करने वाले को तीन साल तक की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। 1957 में राम जी लाल मोदी बनाम स्टेट आफ यूपी केस में जब अनुच्छेद 19 का हवाला देते हुए आईपीसी की धारा 295 को समाप्त करने की मांग की जा रही थी तो फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 295 की संवैधानिक वैधता पर बड़ी टिपण्णी करते हुए कहा था की पब्लिक आर्डर को बनाये रखने के लिए ऐसे प्रतिबंध ज़रूरी हैं।
सुप्रीम कोर्ट का मतलब साफ़ था की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में धार्मिक भावनाओं ठेस पहुंचाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। अब यहाँ पर सारे कानूनी दांव पेचों को कुछ समय के लिए किनारे रख कर , वसीम रिज़वी की हरकत को ज़बरदस्ती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साबित करने पर तुले महानुभावों की सहिष्णुता का परिचय करवाना भी ज़रूरी है।
यहाँ पर उन्हें खुद से ये प्रश्न करने की ज़रूरत है की यदि इस तरह का कृत्य उनकी आस्था के साथ किया गया होता तो क्या तब भी ये उनके लिए ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला रहता ? विचारों की दुनिया में जाने के बजाय यदि हम पूर्व में घट चुकी कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालें तो ये अधिक व्यावहारिक रहेगा।
इसी साल की शुरुआत में स्टैंडअप कॉमेडियन फ़ारूक़ी और उनके साथियों को आईपीसी की धारा 295A के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया इन पर आरोप लगाया गया कि मध्य प्रदेश के इंदौर में नव वर्ष के मौके पर एक कार्यक्रम के दौरान इन्होंने हिंदू देवताओं और गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ ‘अपमानजनक टिप्पणी’ की थी जबकि फ़ारूक़ी का पक्ष ये था की उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा फिर भी वे माफ़ी मांगते हैं बावजूद इसके फ़ारूक़ी को एक महीने से अधिक का समय जेल में बिताना पड़ा।
यहाँ पर सवाल उठना लाज़िमी है तब कहाँ थी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ? इसी तरह तांडव वेब सीरीज को लेकर अमेजन प्राइम वीडियो की इंडिया हेड अपर्णा पुरोहित के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में धारा 295A के तहत मामला दर्ज किया गया हालाँकि उन्होंने भी माफ़ी मांगी।
अंतर साफ़ दिखता है कि माफ़ी मांगने के बावजूद उन्हें धारा 295A का सामना करना पड़ा जबकि आज वसीम रिज़वी जानबूझ कर बार बार मुसलमानो की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहा है बावजूद इसके कुछ अज्ञानी लोग इसे उसका मौलिक अधिकार बता रहे हैं।
त्यौहार पर दूर कहीं बिरयानी की दुकान खुलने से जिनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रवचन देना उन्हें शोभा नहीं देता। कन्क्लूज़न इतना कि वसीम रिज़वी जो कर रहा है उसके अनुसार वो आईपीसी की धारा 295A द्वारा प्रस्तावित दण्ड का पूरा हक़दार है और समय की मांग है कि भारत के संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक ढाँचे की मज़बूती के लिए उसे उसका ये हक़ तत्काल प्रभाव से मिलना चाहिए।