हाथरस रेप पीड़िता के परिवार को घर-नौकरी नहीं देना चाहती योगी सरकार : राहुल गांधी

नई दिल्ली, यूपी के हाथरस रेप कांड दो साल हो गए है। 2020 के सितंबर में प्रदेश के हाथरस के एक गांव में ऊंची जाति के कुछ लोगों ने मिलकर गांव के ही एक दलित परिवार की एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया था। रेप के बाद पीड़िता को बेरहमी से मारपीट कर घायल कर दिया गया था।

अस्पताल में दो हफ्ते तक जिंदगी और मौत से जूझने के बाद पीड़िता ने दम तोड़ दिया था। हद तो तब हो गई जब पुलिस ने पीड़िता के परिवार की मर्जी के बिना आधी रात को ही जबरन उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। इस घटना से लोगों में बढ़ते गुस्से को देखते हुए सीएम योगी ने पीड़िता के परिवार को मुआवजा, परिवार के एक सदस्य को नौकरी और हाथरस के बाहर घर देने का वादा किया था। लेकिन घटना के करीब दो साल बाद भी परिवार को अब तक सिर्फ किस्तों में मुआवजा ही मिला है। परिवार को न तो नौकरी मिली और न ही घर मिला।

आखिरकार पीड़िता के परिवार को न्याय के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई, जिस पर कोर्ट ने 28 जुलाई को योगी सरकार को परिवार के सदस्य को नौकरी देने और उनके पुनर्वास करने का आदेश दिया। लेकिन इस मामले की सुनवाई के दौरान यूपी सरकार की दलीलों से पता चलता है कि योगी सरकार पीड़िता के परिवार को नौकरी और हाथरस के बाहर घर देना ही नहीं चाहती है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे लेकर बीजेपी पर हमला बोला है। उन्होंने कहा कि “आज 2 साल बाद भी पीड़िता के परिवार के साथ प्रताड़ना का सिलसिला जारी है। ‘बेटी बचाओ’ की बात सिर्फ़ एक ढोंग थी, असल में भाजपा बेटियों के साथ अन्याय करने में कभी पीछे नहीं हटती।”

राहुल गांधी ने अपने ट्वीट के साथ न्यूजलॉन्ड्री की खबर को शेयर किया है, जिसमें योगी सरकार के दलीलों का खुलासा किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार अदालत में यूपी सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एसवी राजू ने दावा किया कि वादों को कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 के अनुबंध 1 का हत्या, हत्याकांड बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के पीड़ितों को भुगतान की जाने वाली अतिरिक्त राहत पर कहना है: “उपरोक्त मदों के तहत भुगतान की गई राहत राशि के अलावा अन्य राहत की अत्याचार की तारीख से तीन महीने के भीतर व्यवस्था की जा सकती है” राजू ने कहा कि “सकती है” शब्द दर्शाता है कि सरकार के लिए घर या नौकरी प्रदान करना “अनिवार्य नहीं” है।

इसके अलावा यूपी सरकार के वकील एसवी राजू ने अदालत में यह भी कहा कि आशा का परिवार आर्थिक रूप से उन पर निर्भर नहीं था और इसलिए उन्हें सरकारी नौकरी देने की जरूरत नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि आशा के पिता और भाइयों ने स्वेच्छा से काम करना बंद कर दिया, उन्होंने अपनी नौकरी नहीं खोई। जबकि परिवार ने बताया कि वे सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं। आज दो साल बाद भी उन्हें सीआरपीएफ की सुरक्षा में चलना पड़ता है।

इसके अलावा यूपी सरकार ने “परिवार” की परिभाषा पर भी सवाल उठाया। सरकारी वकील ने कहा कि क्या पीड़ित के भाई-बहनों को परिवार माना जा सकता है। क्या होगा यदि विवाहित भाई रोजगार मिलने के बाद भी परिवार की देखभाल नहीं करता है? हालांकि इस पर अदालत ने कहा कि “परिवार” को एससी/एसटी अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। केस लॉ और ब्लैक्स लॉ डिक्शनरी से परामर्श करने के बाद अदालत ने कहा कि आशा के दो भाइयों को उसका “परिवार” माना जाना चाहिए।

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