आजादी की खातिर लड़े शहीद शेख भिखारी के वंशज फटेहाल जिंदगी जी रहे हैं

नई दिल्ली, (अजहर ईमाम)  झारखंड के वीर योद्धा शहीद शेख भिखारी, जिन्होंने देश को आजादी के लिए अंग्रेजों की अनेक बर्बर यातनाएं सहीं और हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।

हालांकि, कुछ इतिहासकारों का कहना है कि चुटूपालू घाटी में ही इन्हें फांसी दी गयी थी, जिसके कारण आज भी उस बरगद के पेड़ को फंसियारी बरगद कहा जाता है, जबकि दूसरी और मोराबादी के इस ऐतिहासिक स्थल को आज भी लोग टोनगरी फांसी कहते हैं।

इस प्रकार 8 जनवरी, 1858 को इस अमर शहीद ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्रणों को निछावर कर दिया। दुखद यह है कि शेख भिखारी की शहादत को अब भी इतिहासकार अनदेखी कर रहे हैं। वहीं शासन भी संवेदनहीन है। नजीता है कि रांची नगर के किसी चौराहे पर इन शहीदों कई प्रतिमा नहीं है।

इतना कुछ होने के बाद भी शहीद शेख भिखारी के पैतृक गांव खुदिया लोटवा में उनके वंशज फटेहाल जिंदगी जी रहे हैं। वे मजदूरी कर, कोयला ढोकर और ऑटो रिक्शा चला कर परिवार चला रहे हैं। वंशजों को वर्ष में एक बार शहादत दिवस पर आठ जनवरी के दिन कंबल देकर याद कर लिया जाता है।

खुदिया लोटवा को 2011 में सरकार की ओर से आदर्श गांव घोषित किया गया था, लेकिन वंशजों की खबर लेने कोई नहीं पहुंचा। शहीद शेख भिखारी के वंशज शेख कुर्बान, शेख शेर अली, शेख मुस्तकीम और शेख उमर ने बताया कि शेख भिखारी के खानदान का होने पर उनको नाज है। शहादत दिवस पर बड़े-बड़े नेता पहुंचते हैं और मात्र आश्वासन देकर चले जाते हैं।

ओरमांझी खटंगा निवासी अमर शहीद टिकैत उमराव सिंह और उनके दीवान खुदिया लोटवा निवासी शेख भिखारी ने 8 जनवरी 1858 को आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था, लेकिन आज उनके परपोते वृद्धा पेंशन के लिए भी तरस रहे हैं।

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