चिंता में समय न करो बर्बाद… चिंतन में करो, हो जाओगे आबाद

दानिश आलम, (नई दिल्ली)

पढ़ा-लिखा या तरक़्क़ीयाफ्ता होना अलग बात है जबकि चिन्तक होना अलग बात है. चिन्तन ही हमारा मार्गदर्शन करती है. वर्तमान में हमारी चेतना काफी कमजोर हो गई है. जिसका खामियाजा भुगतना हमारा मुकद्दर बनती जा रही है, पंरतु हमें तनिक भी एहसास नहीं हो रहा है कि हम बुद्धीविहीन समाज की ओर बढ़ रहे हैं. यही इस बात की खुली दलील है कि हमारी चेतना किसी महत्वाकांक्षी लोभ-लालसा के परवान चढ़ चुकी है.

खैर, आइए हम भारतीय चिन्तन की सैर करते हैं एवं उन तथ्यों को टटोलते हैं जिनकी कोख से हम भारतीय आजाद फिजा में सांस ले और छोड़ रहे हैं. दरअसल भारतीय चिन्तन के अध्ययन के प्रति हमारा आकर्षण शुरू से कम है. प्राचीन भारतीय सामाजिक राजनीतिक चिन्तन की बात तो दूर, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन भी अपेक्षाकृत ऐसा विषय रहा है जिसके प्रति विद्वानों की उपेक्षा रही है. उपेक्षा का कारण यह रहा है कि देश के परतंत्रताकालीन साम्राज्यवादी वातावरण में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. राष्ट्रीय दृष्टिकोण और चिंतनधारा को अनदेखा करने तथा भारतीय चिंतन के किसी भी परिवेश को हेय मानने की प्रवृत्ति को विदेशी शासन ने, बहुसंख्यक पाश्चात्य विद्वानों ने और गोरी संस्कृति के अंधभक्त देशवासियों ने प्रोत्साहन किया.  चिंतन के क्षेत्र में भारत न कभी शुष्क था और न है. भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन बंजर भूमि या रेगिस्तान जैसा नहीं रहा है. जबकि ये अत्यंत गौरवशाली रूप से समृद्ध है और यह स्थिति सुखकर है कि इधर-उधर बिखरे भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन को व्यवस्थित रूप में संजोने के प्रयास किए जा रहे हैं.
आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन की आलोचना यह की जाती है कि पाश्चात्य दर्शन के भांति यह एक व्यवस्थित राजनीतिक चिंतन या दर्शन नहीं है. वास्तव में, किसी भी राजनीतिक चिन्तन या दर्शन को परखने की प्रमुखत: दो कसौटियां यहां हो सकती है___  प्रथम, उसे  निरपेक्ष राजनीतिक दर्शन और सिद्धांतों के शास्त्रीय दृष्टिकोण से परखा जाए एवं द्वितीय, उसे मौलिक धारणाओं और व्यवहारिक परिस्थितियों के धरातल पर आंका जाए. जहां तक प्रथम कसौटी का प्रश्न है, यह स्वीकार करना होगा कि आधुनिक भारतीय एवं राजनीतिक चिन्तन निरपेक्ष राजनीतिक दर्शन और सिद्धांतों के शास्त्रीय दृष्टिकोण पर खरा नहीं उतरता. इसमें ऐसे तार्किक विश्लेषण का अभाव है जिसके द्वारा शास्त्रीय दर्शन के रूप में राजनीतिक संभावनाओं और सिद्धांतों को एक व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया जाए. राजनीतिक दर्शन के समान इसमें राजनीतिक विचारों और चिन्तनधाराओं का व्यवस्थित इतिहास भी उपलब्ध नहीं है. पाश्चात्य राजनीतिक दर्शन या चिन्तन के समान इसमें कोई व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध सिद्धांत नहीं पाया जाता. इसे हम किसी पद्धति विशेष का जामा नहीं पहना सकते, लेकिन यह आरोप आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन को ‘चिंतन या दर्शन’ की संज्ञा से पृथक नहीं कर सकता. ये आरोप निरा असम्बध्द है. आलोचक यह भूल जाते हैं कि आधुनिक भारतीय समाज एवं राजनीतिक चिन्तन विदेशी हुकूमत के विरुद्ध एक तीखी प्रतिक्रिया के रूप में प्रवाहित हुआ था. आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन के प्रवर्तकों का मूल उद्देश्य किन्हीं राजनीतिक संभावनाओं और सिद्धांतों को अथवा राजनीतिक पद्धतियों को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करना नहीं था, जबकि ये सोते हुए भारत को विदेशी हुकूमत के अनाचारों और उसके द्वारा थोपी गई विदेशी मान्यताओं के विरुद्ध जगाना था. भारतीय सामाजिक और राजनीतिक विचारक और सुधारक चाहते थे कि भारत की जनता जातीयता, संप्रदायिकता शोषण और अज्ञानता के चंगुल से निकलकर राजनीतिक दृष्टि से प्रबुद्ध हो जाए, विदेशी हुकूमत के जुए को उतार फेंकने के लिए मन, वचन और कर्म से उठ खड़ी हो. राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए ‘करो या मरो’ के संघर्ष में जूझ पड़े, अपने देश की गौरवशाली परंपराओं के प्रति उसमें निष्ठा पुनः जागृत हो जाए और ‘अतीत का भारत’ पुनः एक ऐसी अंगड़ाई ले उठे कि विश्व में वह अपने विलुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कर सके.
स्पष्ट है कि  हमारे पूर्वज विचारकों के चिन्तन पर ही स्वतंत्र भारत का निर्माण हुआ है. यद्यपि वर्तमान संक्रमणकाल में राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में कई ऐसे तथ्य उभरकर सामने आए हैं, जिनका भावी चिन्तन को समाधान ढूंढना है. उदाहरण के लिए भारत में संसदीय लोकतंत्र का मखौल, चुनावों में भ्रष्टाचार, भ्रष्ट एवं अकर्मण्य नौकरशाही, नेतृत्व का अनैतिक आचरण तथा सत्ता-लोलुपता, पूंजीवादियों द्वारा शोषण, दलीय अधिनायकतंत्र, विदेशी प्रभाव में मौलिकता का ह्रास आदि ऐसी समस्याएं हैं जिन्होंने भारत को जर्जरित करना प्रारंभ कर दिया है. गहन अध्ययन, मनन एवं चिंतन में जन-साधारण की रुचि कम होती जा रही है. जीवन का मूल लक्ष्य धन एवं पद हथियाने की प्रवृत्ति होता जा रहा है. हमें इन समस्याओं का समुचित समाधान आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन ही प्रदान कर सकेगा. इसके लिए हमें चिन्तन के पूर्व आधारों को आत्मसात् करना होगा. हमारे पूर्वज के विचारों से ही हमें नई ज्योति प्राप्त हो सकती है. एक विदेशी लेखक के अनुसार ‘भारतीय चिन्तन में मनु से गांधी तक एक ही विचार सर्वव्याप्त है कि शासक की व्यक्तिगत ईमानदारी तथा नैतिक उत्तरदायित्व ही एक अस्थाई शासन स्थापित कर सकते हैं. यदि किसी राज्य में ये गुण उपलब्ध ना हों तो कोई भी प्रशासनिक तकनीक अथवा संगठन की चालबाजी, संवैधानिक उपकरण अथवा संशोधन शासन को नष्ट होने से नहीं बचा सकता.’ जहां यह गुण विद्यमान हैं वहां की राजनीति में राज्य का महत्व द्वितीय श्रेणी का है. आवश्यकता इस बात की है कि हम पुनः दयानंद अथवा विवेकानंद की भांति उठकर एक जीवन-आदर्श प्रस्तुत करें और भारतीय चिंतन को पुनः नैतिकता एवं न्याय के पवित्र आधार पर  प्रतिस्थापित करने की सफल चेष्टा करें.

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