Tarique Anwar Champarni
कोरोना के बहाने तब्लीग़ी जमाअत के ऊपर जो हमला किया जा रहा है यह बहुत लम्बी रणनीति का हिस्सा है। इसको समझने के लिए थोड़ा इतिहास में जाना चाहिये। जमाअत की शुरुआत मेवात के इलाके से हुई थी। वर्तमान में मेवात का यह क्षेत्र हरियाणा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में बंटा हुआ है। इनमें मेव मुसलमानों की बड़ी आबादी है। कई इतिहासकार मेव को मीणा ट्राइब से जोड़कर देखतें है जब्कि कुछ लोग राजपूतों से जोड़कर देखते है। मुझें ट्राइब वाली बात सच्चाई के ज़्यादा नज़दीक लगती है। लगभग मेव की बड़ी आबादी, अनुमानित 400 गाँव, ने इस्लाम क़ुबूल किया था। इस्लाम क़ुबूल करने के बावजूद बहुत से ऐसे रिवाज़ थे जो मेव प्रैक्टिस करते थे बल्कि आज भी प्रैक्टिस करते है। उस समय नस्लीय एवं जातीय विभेद और छूत-अछूत वाली प्रैक्टिस सर चढ़कर बोल रहा था। बल्कि गौत्र-पाल आज भी प्रैक्टिस किया जा रहा है। मेव समुदाय के कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि उस समय मेव में ‘घर वापसी’ भी शुरू हो चुकी थी।
मौलाना इलियास साहब कांधलवी बंग्ला वाली मस्ज़िद, निज़ामुद्दीन, में एक मदरसा चलाते थे। उस मस्ज़िद के मोअज्जिन, अज़ान देने वाला, मेव मुसलमान थे। उसी मोअज्जिन के जरिये मौलाना इलियास साहब को मेव की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल हुई थी। उसके बाद मौलाना साहब मेवात की यात्रा पर निकले और कई गाँवों का दौरा किया। अनेक लोगों से मुलाक़ात किये लोग उनकी बातों को समझने से इंकार कर दिये। लेकिन मियाँ जी मूसा, जो कि नूंह के बग़ल में एक गाँव है घासेड़ा के रहने वाले थे, उनको मौलाना की बात समझ मे आगयी। मियाँ जी मूसा के पुत्र मौलाना क़ासिम साहब भरतपुर में मिलखेड़ा मदरसा के संस्थापक है। मियाँ जी मूसा घासेड़ा गाँव के रहने वाले जरूर थे मग़र तब्लीग़ का पहला जत्था फ़िरोज़पुर नमक से सोहना कस्बा के लिए निकला था। जिसका मक़सद मुसलमानों को इस्लाम की बेसिक शिक्षा देना था। चूँकि हिन्दू धर्म को मानने वालों की तरह छूत -अछूत वाली प्रैक्टिस हो रही थी इसलिए इसको ख़त्म करने के लिए एक थाली में पांच-सात लोगों के खाने का रिवाज़ को बढ़ावा दिया गया।
आज भी भारत में ऐसे हजारों गाँव है जहाँ दो-चार घर ही मुसलमान है। इन गाँवों में लोग हिन्दू रीति-रिवाज को फॉलो करने के लिए विवश है। यह लोग बेहद ग़रीब और दरिद्र है जिनको बहुत आसानी से घर वापसी का शिकार बनाया जा सकता है। मग़र तब्लीगी जमाअत एक ऐसी जमाअत है जिनकी पहुँच ऐसी आबादी में भी है और इस्लाम की बेसिक शिक्षा रोज़ा और नमाज़ से लोगों को जोड़ रखा है। इसलिए हिंदुत्व के एजेंडा पर काम करने वाले संघ को परिशानी है। मैं भी किसी जमाने में तब्लीग़ी जमाअत का बड़ा आलोचक हुआ करता था। बल्कि कुछ विषयों पर आज भी मतभेद है। मेरी पुरानी फेसबुक आईडी पर एक फेसबुक मित्र नरेन्द्र सिसोदिया हुआ करता था उसने 2012 में संघ के मुखपत्र पांचजन्य में इस सम्बंध में एक लेख लिखा था जिसे पढ़ने के बाद जमाअत को लेकर मेरी सोच बदल गयी। हमलोग भले ही तब्लीग़ी जमाअत को एक मसलकी तंज़ीम के तौर पर देखें मग़र आरएसएस के लोग इस तंज़ीम को एक कल्चरल और आइडेंटिटी थ्रेट के तौर पर देखतें है।
मेरे लिए तब्लीग़ी जमाअत केवल धार्मिक नहीं बल्कि एक कल्चरल मूवमेंट है। अगर तब्लीगियों ने भारत के बाद सबसे अधिक काम कही किया है तब अफ़्रीका के देश है। भारत और अफ़्रीका के इतिहास को उठाकर देखने की ज़रूरत है। भारत में जातीय भेदभाव एवं अछूत जैसा घिनौना ब्राह्मणवादी कल्चर था जब्कि अफ़्रीका में रँग एवं नस्ल के आधार पर ग़ुलाम बनाकर भेदभाव करने जैसा क्रूर कृत्य होता था। मुसलमानों के नट, रँगरेज, पंवरिया, हलालखोर, भाँट, कुंजड़ा, धोबी, हजाम, मल्लाह, जोगी, फ़क़ीर इत्यादि ऐसी जातियाँ है जिनको तथाकथित अभिजात वर्ग के लोग पास भी नहीं बैठाते है, उनके बीच तब्लीग़ी जमाअत के लोग जाकर एक बर्तन में खाना ख़ाकर उस मिथक को तोड़कर सामाजिक समरसता बनाने का प्रयास कर रहे है। अभी इस क्षेत्र में और अधिक काम होना बाकी है। ब्राह्मणवादी सर्किल को मेन्टेन करने वाले उर्दू नामधारी लिबरल और नास्तिक लोगों को यह बात समझ नहीं आसकती है। आपने अफ़्रीका के ग़ुलामी के इतिहास को जरूर पढ़ा और समझा होगा। अगर नहीं पढ़े और समझें है तब अमेरिकन ब्लैक लेखक एलेक्स हैली द्वारा लिखित विश्व की बेस्ट सेलिंग बुक ‘His Search For Roots’ जरूर पढ़ियेगा। साथ ही ‘कुंटा किंते’ पर आधारित Roots Series नामक एक सीरीज जरूर देखें। आपको समझ आयेगा की किस तरह से अंग्रेज़ और अमेरिकन मूल के लोग अफ़्रीकन मुसलमानों को ग़ुलाम बनाया था और धीरे-धीरे अगला पुरा नस्ल अपने कल्चर को भूल गया था। ऐसे परिस्थितियों में जाकर तब्लीगियों ने अफ़्रीका के ब्लैक मुसलमानों के भीतर उनको इंसान होने का एहसास दिलाया है। उर्दू नामधारी लिबरल लोग उतना ही पढ़ें है जितना The Hindu और Ndtv ने लिख दिया है। हाँ, वही The Hindu, जो स्वयं को लिबरल तो कहते है मग़र नाम से ही हिन्दू संस्कृति का आभास होता है, ने संघियों से भी पहले कोरोना वायरस को कुर्ता-पजामा पहनाकर मुसलमान बना दिया था। हम जानते है कि हम अल्पसंख्यक है और हमको अपनी आइडेंटिटी बहुत प्यारी है। हम बैलेंस नहीं बना सकते है। हमनें भी देश की पॉलिटिकल हिस्ट्री पढ़ रखी है और हम जानते है कि किस तरह से छोटी गलतियों को भी बड़ा पेश करके मुस्लिम आइडेंटिटी के नाम पर हमको दबाया गया है। यह जानते हुए भी की मेलकॉम-एक्स की तरह हमें ख़त्म किया जा सकता है फ़िर भी हम आइडेंटिटी के नाम पर बैलेंस बनाकर नहीं लिख सकते है। क्योंकि इस देश मे भी लिबरल होने का एडवांटेज उन्हें ही मिलता है जो अपना नाम The Hindu रखता है।
लेखक: Tarique Anwar Champarni, एक सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक है ये लेखक के निजी और व्यक्तिगत विचार हैं.