उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन के लिए कौन जिम्मेदार है?

ये आंकड़े हैं जो उत्तर प्रदेश की ‘बेहतरीन-उम्मत’ के बारे में हैं। अब आप इसी से अंदाज़ा लगा लीजिये की डॉक्टर, इंजीनियर कितने होंगे, आई. ए. एस. और आई. पी. एस. तो पूरे राज्य भर में हर साल दो-चार ही होते हैं। एक वो वक़्त था जब सरकारी नौकरियों में मुसलमान की तादाद 35 प्रतिशत थी, एक आज का दिन है कि ये तादाद 3 प्रतिशत से भी नीचे चली गई है. यह वही उत्तर प्रदेश है जहाँ 77 युनिवर्सिटीज़ हैं, जहाँ कहने को हर शहर में कॉलेज हैं, जहाँ मदारिस की एक लम्बी लिस्ट है। आख़िर इस पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार कौन है?

उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की बद-हाली और तालीमी गिरावट की असल ज़िम्मेदार तथाकथित सेक्युलर पार्टियाँ हैं, जिन्होंने मुसलमानों को बंधुआ वोट समझा, हर बार नए-नए अंदाज़ से मुसलमानों के वोट हासिल किये, बदले में दो-चार मुसलमान वज़ीर बने, कभी रमज़ान में इफ़्तार करा दिया, किसी मज़ार पर फूलों की चादर भेज दी, बहुत हुआ तो किसी ने क़ब्रिस्तान की चार दीवारी करा दी, एक हुकूमत ने उर्दू को सरकारी सतह पर दूसरी ज़बान का दर्जा देने का बिल पास कर दिया, एक साहब ने बाबरी मस्जिद गिरानेवाले कारसेवकों पर दो-चार गोलियाँ चलवा दीं, एक हुकूमत ने किसी ज़माने में उर्दू टीचर भर्ती कर दिये, बस एक-एक काम करके पंद्रह-बीस साल तक वोट हासिल करते रहे।

किसी सरकार ने या उनके साथ शामिल मुस्लिम विधायकों ने मुसलमानों की तालीम की कोई योजना कभी नहीं बनाई। मुस्लिम इलाक़ों में दूर-दूर तक स्कूल नहीं हैं। स्कूल हैं तो टीचर्स नहीं हैं। कहीं बिल्डिंग नहीं है, पूरी शिक्षा व्यवस्था करप्शन का शिकार है। प्राइवेट स्कूल महंगे हैं, जिनमे मुस्लिम बच्चे नहीं पढ़ सकते, उनके ख़र्चों का बोझ आम मुसलमान बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसके बावजूद भी हमारे मुस्लिम लीडर्स एक बार फिर उत्तर प्रदेश में तथाकथित सेक्युलर पार्टियों का झंडा उठाए हुए हैं। उन्हें स्टेज से धक्का दे कर भगाया जा रहा है, उनका नाम लेना भी किसी को गवारा नहीं, लेकिन हमारे सियासी लीडर्स उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं, क्योंकि वो जीतकर अपने माल और दौलत में बढ़ोतरी करना चाहते हैं।

क़ौम की ख़िदमत के नाम पर क़ौम का सौदा कर रहे हैं। क्या 2022 के चुनाव में कोई सियासी पार्टियों से ये पूछने की हिम्मत करेगा कि उनके पास मुसलमानों के लिये क्या एजेंडा है और उन्होंने अब से पहले जो वादे किये थे वो क्यों पूरे नहीं हुए? जब क़ौम के ईमान बेचनेवाले लोग लीडर बन जाते हैं तो क़ौमें इसी तरह ग़ुलाम हो जाती हैं जिस तरह आज उत्तर प्रदेश का मुसलमान है।

तालीमी पिछड़ेपन को दूर करने के लिये हर आदमी को जागरूक होना होगा। मुसलमानों के तालीमी इदारों को भी अपना एक्टिव रोल अदा करना होगा, आम मुसलमानों को भी वज़ीफ़ा खाने और मिड डे मील के बजाय तालीम पर बात करनी होगी, माँ-बाप को सरकारी निज़ामे-तालीम (Education System) के ज़िम्मेदारों से पूछना होगा कि उनके बच्चों के स्कूलों में टीचर्स क्यों नहीं हैं? मगर माफ़ कीजिये अधिकतर माँ-बाप अपने बच्चों के वज़ीफ़े के सिलसिले में तो स्कूल मास्टर से चार बार मिलते हैं, कभी उनकी तालीम के लिये नहीं मिलते।

एफ़िलिएटेड मदरसों को अपने टीचर्स की तनख़्वाहों का ख़ुद भी इन्तिज़ाम करना होगा, पूरी क़ौम में तालीमी बेदारी का एक अभियान चलाना होगा कि “एक वक़्त खाएँगे- अपने बच्चों को पढ़ाएँगे।” सियासी नेताओं को अपनी सियासी पार्टियों पर दबाव डालना होगा कि वो मुसलमानों के तालीमी मसायल को अपनी प्राथमिकी (preferences) में शामिल करें। मगर ये सब कुछ टेम्पोरेरी हल हैं।

इसका पायदार हल सरकार में अपनी हिस्सेदारी के बाद ही हासिल हो सकता है। वो हिस्सेदारी उसी वक़्त होगी जब आपकी अपनी सियासी पार्टी हो, जिसकी लीडरशिप आप ख़ुद कर रहे हों। आपकी लीडरशिप वाली सियासी पार्टी के चार प्रतिनिधि भी संसद/विधानसभा में आपकी बात रख सकते हैं, ग़ैरों की लीडरशिप के मुस्लिम नाम के पचास प्रतिनिधि भी कुछ नहीं कर सकते, जैसा कि सत्तर साल का तज्रिबा आपके सामने है।

चुनाव आपके सामने है। आप चाहें तो अपनी तक़दीर का नया अध्याय लिख सकते हैं और अगर आपने अपने ज़मीर का सौदा कर लिया तो उससे भी ज़्यादा बुरे दिनों का सामना करना होगा।

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

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