जैसे-जैसे यूपी विस चुनाव करीब आ रहा है वैसे-वैसे सत्ताधीश बनने के क़याद तेज़ हो रहे हैं.
दानिश आलम (नई दिल्ली)
आगामी चंद माह बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. सभी राजनीतिक दल सियासी गठजोड़ में जुटी है. यूपी की सत्ता के गलियारों में हलचल तेज हो रही है. नेताओं की बैठक एवं मुलाक़ातों का सिलसिला जारी है. सियासी अटकलों के बाज़ार में नित-नए शिगूफे आने शुरू हो गए हैं. राजनेताओं के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषकों की दिनचर्या भी व्यस्त से व्यस्तर होती जा रही है. हर दिन एक नया बयान सारा मंथन बेजा बना देता है. जल्द ही चुनाव की रणभेरी बजने वाली है. कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव केंद्र के लोकसभा चुनाव के लिए सेमीफाइनल साबित होता है. इस बार यूपी विस चुनाव में जहां एक ओर राष्ट्रीय पार्टियां हैं तो वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कई छोटी-छोटी नव-निर्मित सियासी जमात भी अपनी किस्मत आजमाई कर रही है. मसलन, बहुजन समाजवादी विचारों से सहमति रखने वाली चंद्र शेखर आजाद की पार्टी आजाद समाज पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में उतर रही है. देखना दिलचस्प होगा कि बहुजनवादी या बहुजन समाज किसे मतदान करते हैं. विगत चुनाव में मायावती की बीएसपी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था. मायावती की पार्टी 403 सीटों वाली विधानसभा चुनाव में महज़ 19 सीट पर ही सिमट गई थी. गौरतलब हो कि बीएसपी आगामी चुनाव में भी लगभग अकेले ही चुनावी मैदान में उतरती दिखाई दे रही है. शुरुआत में खबरें आ रही थी कि इस बार यूपी विस चुनाव में मायावती और असद्दुदीन ओवैसी एक साथ आ सकते हैं परंतु अब इस गठजोड़ पर भी विराम लगता नज़र आ रहा है. एक ओर जहां बीएसपी की तरफ़ से अकेले चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है तो वहीं दूसरी ओर एआईएमआईएम के मुखिया असद्दुदीन ओवैसी भी सौ सीटों पर चुनाव लड़ने के मूड में हैं.
बात समाजवादी पार्टी की करें, तो अखिलेश यादव कह रहे हैं कि उनकी पार्टी किसी बड़ी जमात के साथ जाने के बजाय छोटे दलों के साथ गठबंधन कर सकती है. यद्यपि उन्होंने अभी साफ नहीं किया है कि उनकी पार्टी विस चुनाव में किसे सहयोगी के तौर पर साथ लेकर चुनाव लड़ेगी. सनद रहे कि विगत चुनाव में सपा के भी चारों खाने चित्त हो गए थे. सत्तारूढ़ रही सपा अपने सहयोगी समेत मात्र 54 सीट पर ही सिमट गई थी. समाजवादियों का दावा है कि ये चुनाव वे लोग बड़ी मार्जिन से जीत रहे हैं. खैर, दावों की हकीकत तो नतीजे के दिन ही सामने आएगी.
लंबे समय तक सत्ताभोग के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस क्या करेगी ये तो कांग्रेस ही बताएगी. हालांकि, कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश के मुद्दों पर सक्रिय नज़र आती हैं. लगातार अजय बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ सरकार की नाकामियों पर उनसे तीखे सवाल पूछने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं. इधर आम आदमी पार्टी भी चुनाव में जोरआजमाइ के लिए तैयार है. हाल ही में आप नेता संजय सिंह ने अयोध्या स्थित राम मंदिर निर्माण से जुड़े जमीन खरीद को लेकर एक घोटाला होने का दावा किया है. सनद रहे कि ये मामला देशभर में तूल पकड़ चुका है. देखना ये होगा कि इस मुद्दे का फायदा आम आदमी पार्टी को होगा या फिर बीजेपी ही इसे भुनाने में कामयाब होती है. उधर बिहार के मुकेश सहनी जिन्होंने ने विकास शील इंसान पार्टी (वीआईपी) नामक मल्लाहों की एक राजनीतिक पार्टी बनाई है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी भी इंट्री की सुगबुगाहट है. बताते चलें कि मुकेश सहनी बिहार सरकार में मंत्री हैं और साथ ही भाजपा के घटक दल के हिस्सा हैं.
आगामी चुनाव सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए भी आसान कतई नहीं है. कोरोनावायरस की भयानक त्रासदी से जूझ रहे संपूर्ण विश्व और भारत में सबसे बत्तर हालत उत्तर प्रदेश का ही रहा है. यूं तो देश-भर में त्राहि-त्राहि मची थी परंतु योगी आदित्यनाथ के प्रदेश में लोग मरणोपरांत भी सम्मान के लिए संघर्षरत रहे. लाशें गंगा में बहती मिली. नदी किनारे रेत में लाशें दबाई गई. यहां तक कि दूर से लाशें दिखाई न दे इसके लिए निर्लज्जों ने लाश से कफ़न तक खींच लिया. लोग आक्सीजन के लिए मारे-मारे फिरते रहे. इतना सब होने के बावजूद भी योगी सरकार लोगों को ये बताने में व्यस्त थी कि उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी नहीं है. आक्सीजन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है. कोविड-19 से रोकथाम में नाकामी की वजह से बीजेपी आलाकमान और अजय बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ में ठन गई. उनके इस्तीफे तक की मांग उठी. अंततोगत्वा विजय योगी आदित्यनाथ की ही हुई. अलावा इसके उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को बेवजह प्रताड़ित करने का आरोप भी योगी आदित्यनाथ के सर बंधता है. सीएए इनआरसी के विरुद्ध हुए आंदोलन में भाग लेने वाले आंदोलनकारियों का जिस प्रकार दमन किया गया ये किसी से छुपा नहीं है. मौजूदा यूपी सरकार में जहां एक तरफ बहुसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कुछ लोगों द्वारा हेट-स्पीच देने पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो वहीं दूसरी ओर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग पर बात बत में देशद्रोह के मुकदमे दर्ज हो जाते हैं. गौरतलब हो कि प्रदेश में दलित उत्पीड़न का ग्राफ भी तेज़ी से बढ़ा है. कथित लव जिहाद के कानून, गौ-तस्करी के नाम पर हत्याएं एवं जबरन जय श्री राम और वंदे मातरम का नारा लगवाना वगैरह वगैरह. दरअसल हिंदुत्वा समर्थक हिंदूराष्ट्र के जयघोष के सहारे अल्पसंख्यकों में भय फैलाना चाहते हैं और साथ ही बहुसंख्यक वर्ग का वोट भी साधते हैं. इन सब कारणों के अलावे कृषि कानून के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन और रोष भाजपा को काफी महंगा पड़ सकता है.
राजनीतिज्ञ विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर प्रदेश का ये आगामी विधानसभा चुनाव केंद्र के लोकसभा चुनाव पर गहरा असर डालेगा. कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि अगर योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी दोबारा सत्ता पर काबिज़ होती है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किए जा सकते हैं. ये सभी अटकलेंबाजी है. उत्तर प्रदेश में अभी बहुत कुछ होना बाकी है.