ज़ायरा वसीम ने अल्लाह के लिए फ़िल्मी दुनिया को कहा अलविदा,बोली फिल्मों के दौरान धर्म से भटक गई थी

फ़िल्म ‘दंगल’ और ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ जैसी फ़िल्मों से चर्चित हुईं बाल अदाकारा ज़ायरा वसीम ने बॉलीवुड को अलविदा कह दिया है.

मिल्लत टाइम्स,नई दिल्ली:फ़ेसबुक पर लिखी एक लंबी पोस्ट में उन्होंने कहा है कि अपने धर्म और अल्लाह के लिए यह फ़ैसला ले रही हैं. ज़ायरा ने कहा है कि वो फ़िल्में में काम करने के दौरान अपने धर्म से भटक गई थीं.

पढ़िए उनके पोस्ट के अहम हिस्से
पाँच साल पहले मैंने एक फ़ैसला किया था, जिसने हमेशा के लिए मेरा जीवन बदल दिया था. मैंने बॉलीवुड में क़दम रखा और इससे मेरे लिए अपार लोकप्रियता के दरवाज़े खुले. मैं जनता के ध्यान का केंद्र बनने लगी. मुझे क़ामयाबी की मिसाल ती तरह पेश किया गया और अक्सर युवाओं के लिए रोल मॉडल बताया जाने लगा.

हालांकि मैं कभी ऐसा नहीं करना चाहती थी और न ही ऐसा बनना चाहती थी. ख़ासकर क़ामयाबी और नाकामी को लेकर मेरे विचार ऐसे नहीं थे और इस बारे में तो मैंने अभी सोचना-समझना शुरू ही किया था.

आज जब मैंने बॉलीवुड में पांच साल पूरे कर लिए हैं तब मैं ये बात स्वीकार करना चाहती हूं कि इस पहचान से यानी अपने काम को लेकर खुश नहीं हूं. लंबे समय से मैं ये महसूस कर रही हूं कि मैंने कुछ और बनने के लिए संघर्ष किया है.

मैंने अब उन चीज़ों को खोजना और समझना शुरू किया है जिन चीज़ों के लिए मैंने अपना समय, प्रयास और भावनाएं समर्पित की हैं. इस नए लाइफ़स्टाइल को समझा तो मुझे अहसास हुआ कि भले ही मैं यहां पूरी तरह से फिट बैठती हूं, लेकिन मैं यहां के लिए नहीं बनीं हूं.

इस क्षेत्र ने मुझे बहुत प्यार, सहयोग और तारीफ़ें दी हैं लेकिन ये मुझे गुमराही के रास्ते पर भी ले आया है. मैं ख़ामोशी से और अनजाने में अपने ईमान से बाहर निकल आई.

मैंने ऐसे माहौल में काम करना जारी रखा जिसने लगातार मेरे ईमान में दख़लअंदाज़ी की. मेरे धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में आ गया. मैं नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ती रही और अपने आप को आश्वस्त करती रही कि जो मैं कर रही हूं सही है और इसका मुझ पर फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है. मैंने अपने जीवन से सारी बरकतें खो दीं.

बरकत ऐसा शब्द है जिसके मायने सिर्फ़ ख़ुशी या आशीर्वाद तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये स्थिरता के विचार पर भी केंद्रित है और मैं इसे लेकर संघर्ष करती रही हूं.

मैं लगातार संघर्ष कर रही थी कि मेरी आत्मा मेरे विचारों और स्वाभाविक समझ से मिलाप कर ले और मैं अपने ईमान की स्थिर तस्वीर बना लूं. लेकिन मैं इसमें बुरी तरह नाकाम रही. कोई एक बार नहीं बल्कि सैकड़ों बार.

अपने फ़ैसले को मज़बूत करने के लिए मैंने जितनी भी कोशिशें कीं, उनके बावजूद मैं वही बनी रही जो मैं हूं और हमेशा अपने आप से ये कहती रही कि जल्द ख़ुद को बदल लूंगी.

मैं लगातार टालती रही और अपनी आत्मा को इस विचार में फंसाकर छलती रही कि मैं जानती हूं कि जो मैं कर रही हूं वो सही नहीं नहीं लग रहा. लेकिन एक दिन जब सही समय आएगा तो मैं इस पर रोक लगा दूंगी. ऐसा करके मैं लगातार ख़ुद को कमज़ोर स्थिति में रखती, जहां मेरी शांति, मेरे ईमान और अल्लाह के साथ मेरे रिश्ते को नुक़सान पहुंचाने वाले माहौल का शिकार बनना आसान था.

मैं चीज़ों को देखती रही और अपनी धारणाओं को ऐसे बदलते रही जैसे मैं चाहती थी. बिना ये समझे कि मूल बात ये है कि उन्हें ऐसे ही देखा जाए जैसी कि वो हैं.

मैं बचकर भागने की कोशिशें करती और आख़िरकार बंद रास्ते पर पहुंच जाती. इस अंतहीन सिलसिले में कुछ था जो मैं खो रही थी और जो लगातार मुझे प्रताड़ित कर रहा था, जिसे न मैं समझ पा रही थी और न ही संतुष्ट हो पा रही थी.

यह तब तक चला जब तक मैंने अपने दिल को अल्लाह के शब्दों से जोड़कर अपनी कमज़ोरियों से लड़ने और अपनी अज्ञानता को सही करने का फ़ैसला नहीं किया.

क़ुरान के महान और आलौकिक ज्ञान में मुझे शांति और संतोष मिला. वास्तव में दिल को सुकून तब ही मिलता है जब इंसान अपने ख़ालिक़ के बारे में, उसके गुणों, उसकी दया और उसके आदेशों के बारे में जानता है.

मैंने अपनी स्वयं की आस्तिकता को महत्व देने के बजाय अपनी सहायता और मार्गदर्शन के लिए अल्लाह की दया पर और अधिक भरोसा करना शुरू कर किया.

मैंने जाना कि मेरे धर्म के मूल सिद्धांतों के बारे में मेरा कम ज्ञान और कैसे पहले बदलाव लाने की मेरी असमर्थता, दरअसल दिली सुकून और ख़ुशी की जगह अपनी (दुनियावी और खोखली) इच्छाओं को बढ़ाने और संतुष्ट करने का नतीजा थी.

मेरा दिल शक़ और ग़लती करने की जिस बीमारी से पीड़ित था उसे मैंने पहचान लिया था. हमारे दिल पर दो बीमारियां हमला करती हैं. ‘संदेह और ग़लतियां’ और दूसरी ‘हवस और कामनाएं.’ इन दोनों का ही क़ुरान में ज़िक्र है.

अल्लाह कहता है, “उनके दिलों में एक बीमारी है (संदेह और पाखंड की) जिसे मैंने और ज़्यादा बढ़ा दिया है.” मुझे अहसास हुआ कि इसका इलाज सिर्फ़ अल्लाह की शरण में जाने से ही होगा और वास्तव में जब मैं रास्ता भटक गई थी तब अल्लाह ही ने मुझे राह दिखाई.

क़ुरान और पैग़ंबर का मार्गदर्शन मेरे फ़ैसले लेने और तर्क करने की वजह बना और इसने ज़िंदगी के प्रति मेरे नज़रिए और ज़िंदगी के मायने को बदल दिया.

हमारी इच्छाएं हमारी नैतिकता का प्रतिबिंब हैं. हमारे मूल्य हमारी आंतरिक पवित्रता का बाहरी रूप हैं. इसी तरह क़ुरान और सुन्नत के साथ हमारा रिश्ता, अल्लाह और धर्म के साथ हमारे रिश्ते और हमारी इच्छाओं, मक़सद और ज़िंदगी के मायने को परिभाषित करता है.

मैंने कामयाबी को लेकर अपने विचार, अपनी ज़िंदगी के मायने और मक़सद के गहरे स्रोतों को लेकर सावधानीपूर्वक सवाल किया. सोर्स कोड जिसने मेरी धारणाओं को प्रभावित किया, वो अलग आयामों में विकसित हुआ.

कामयाबी का हमारे पक्षपाती, भ्रमित, पारंपरिक और खोखले जीवन मूल्यों से सह-संबंध नहीं है. हमें क्यों बनाया गया इसके मक़सद को समझ लेना ही कामयाबी है. हम अपनी आत्मा को धोखा देकर गुमराही में आगे बढ़ते रहते हैं और ये भूल जाते हैं कि हमें क्यों बनाया गया है.

ये यात्रा थकाऊ रही है, लंबे समय से मैं अपनी रूह से लड़ती रही हूं. ज़िंदगी बहुत छोटी है लेकिन अपने आप से लड़ते रहने के लिए बहुत लंबी भी है. इसलिए आज मैं अपने इस फ़ैसले पर पहुंची और मैं अधिकारिक तौर पर इस क्षेत्र से अलग होने की घोषणा करती हूं.

यात्रा की कामयाबी आपके पहले क़दम पर निर्भर है. मेरे सार्वजनिक तौर पर ऐसा करने का कारण अपनी पवित्र छवि बनाना नहीं है बल्कि मैं एक नई शुरुआत करना चाहती हूं और उसके लिए कम से कम मैं इतना तो कर सकती हूं. अपनी इच्छाओं के सामने समर्पण मत करो क्योंकि इच्छाएं अनंत हैं. आपने जो कुछ हासिल किया है, हमेशा उससे बाहर निकलो

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity