तलाक पर मुस्लिम महिला को हक दिलाने वाले मोदी हिंदू महिला को हक क्यों नहीं दिला रहे है?

मिल्लत टाइम्स,नई दिल्ली:’हमारी मुस्लिम महिलाएं, बहनें, उनको मैं आज लाल किले से विश्वास दिलाना चाहता हूं. तीन तलाक़ की कुरीति ने हमारे देश की मुस्लिम बेटियों की ज़िंदगी को तबाह करके रखा हुआ है और जिन्हें तलाक़ नहीं मिला है वो भी इस दबाव में गुजारा कर रही हैं. मेरे देश की इन पीड़ित माताओं-बहनों को, मेरी मुस्लिम बेटियों को मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं उनके न्याय के लिए, उनके हक़ के लिए काम करने में कोई कमी नहीं रखूंगा और मैं आपकी आशाओं, आकांक्षाओं को पूर्ण करके रहूंगा.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये बातें 15 अगस्त, 2018 को लाल किले से दिए अपने भाषण में कही थीं.लेकिन अपने भाषणों और बयानों में बार-बार ‘मुस्लिम बहनों’, ‘मुस्लिम माताओं’ और ‘मुस्लिम बेटियों’ के हक़ और इंसाफ़ की बात करने वाले वही पीएम मोदी सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर बिल्कुल अलग रुख अख़्तियार करते दिखे.

समाचार एजेंसी एएनआई की संपादक स्मिता प्रकाश ने जब तीन तलाक़ और सबरीमला मुद्दे पर प्रधानमंत्री की राय जानने चाही तो उन्होंने कहा:
दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जहां तीन तलाक़ पर पाबंदी है. इसलिए ये आस्था का मसला नहीं है. इसका मतलब ये है कि तीन तलाक़ जेंडर इक्वलिटी (लैंगिक समानता) का मसला बनता है, सामाजिक न्याय का मसला बनता है, न कि धार्मिक आस्था का. इसलिए इन दोनों को अलग कीजिए. दूसरी बात,भारत स्वभाव से इस मत का है कि सभी को समान हक़ मिलना चाहिए. हिंदुस्तान में बहुत से मंदिर ऐसे भी हैं जहां पुरुष नहीं जा सकते और पुरुष वहां नहीं जाते. मंदिर की अपनी मान्यताएं हैं, एक छोटे से दायरे में. इसमें सुप्रीम कोर्ट की महिला जज (इंदु मल्होत्रा) का जो जजमेंट है, उसको बारीकी से पढ़ने की ज़रूरत है. इसमें किसी राजनीतिक दल के दख़ल की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने एक महिला के नाते भी इसे समझकर अपने सुझाव दिए हैं. मेरा ख़्याल है उस पर भी चर्चा होनी चाहिए.
महिलाओं से ही जुड़े दो अलग मुद्दों पर प्रधानमंत्री के एक-दूसरे से एकदम उलट रवैये को कैसे देखा जाए?

धर्मस्थलों में महिलाओं को प्रवेश दिलाने के आंदोलन से जुड़ी कार्यकर्ता तृप्ति देसाई कहती हैं, “प्रधानमंत्री को ऐसी बात बिल्कुल नहीं कहनी चाहिए थी. जैसे तीन तलाक़ में महिलाओं के साथ अन्याय होता है वैसे ही सबरीमला मामले में भी महिलाओं के साथ अन्याय होता आया है. उनके हक़ छीने जाते रहे हैं. वहां अगर 10-50 साल के पुरुष जा सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं? ये हमारे संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का अपमान है, महिलाओं का अपमान है.”


सबरीमला महिलाएं फोटो

आस्था के सवाल पर तृप्ति कहती हैं, “क्या महिलाओं की आस्था नहीं होती? उन्हें मंदिर में जाने से रोके जाने पर क्या आस्था से खिलवाड़ नहीं होता? वैसे, मुझे लगता है कि ये आस्था का नहीं बल्कि समानता का विषय है.”
न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ की वरिष्ठ संपादक आरफ़ा ख़ानुम शेरवानी का मानना है कि चाहे सबरीमला का मुद्दा हो या तीन तलाक़ का, दोनों ही पितृसत्ता को चुनौती देते हैं.
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, “हम अपने राजनीतिक नेतृत्व से कम से कम इतनी उम्मीद रखते हैं कि वो महिलाओं और लैंगिक न्याय से जुड़े मामलों पर निष्पक्ष होकर फ़ैसले लेंगे. लेकिन असल में होता ये है कि राजनीतिक पार्टियां अपनी वोट बैंक पॉलिटिक्स से अलग नहीं हो पातीं और इन दोनों मुद्दों में भी यही हुआ है.”
आरफ़ा कहती हैं, “सबरीमला और तीन तलाक़ के मसलों में देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों का भी राजनीतीकरण हो रहा है. उन्हें भी अपनी सुविधा के हिसाब से स्वीकार या अस्वीकार किया जा रहा है. चूंकि तीन तलाक़ को अपराध ठहराया जाना बीजेपी की पॉलिटिक्स के अनुकूल है, वो इसे स्वीकार कर रही है. वहीं, सबरीमला में महिलाओं के महिलाओं को प्रवेश दिलाना उनके हिंदुत्व के अजेंडे के ख़िलाफ़ है इसलिए इसे ख़ारिज किया जा रहा है.”
आरफ़ा मानती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का ये कहना कि सबरीमला आस्था का विषय है लैंगिक समानता का नहीं, एक समाज और लोकतंत्र के तौर हमें पिछली सदी में धकेलने की कोशिश जैसा जैसा है.

‘आंदोलन करने वाली महिलाएं अयप्पा की भक्त नहीं’
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार मधु किश्वर की राय तृत्पि देसाई और आरफ़ा ख़ानुम शेरवानी से अलग है.
उन्होंने कहा की, “सबसे पहली बात तो ये कि तीन तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करवाने के लिए ख़ुद मुसलमान महिलाएं आगे आई थीं. उन्होंने ख़ुद सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया. वहीं, सबरीमला मंदिर में जाने के लिए के जिन महिलाओं ने आंदोलन किया वो आस्थावान थी ही नहीं. उनमें से कोई मुसलमान थी, कोई ईसाई और कोई नास्तिक. आंदोलन करने वालों में से कोई महिला भगवान अयप्पा की भक्त या श्रद्धालु नहीं थी.”
मधु किश्वर का तर्क है कि अगर देश के सभी मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी होती तब ये लैंगिक भेदभाव और असमानता का मुद्दा होगा. अगर हज़ारों मंदिरों में से एक-दो मंदिरों में ऐसी प्रथा है तो इसे भेदभाव नहीं कहा जा सकता.
पत्रकार और फ़िल्ममेकर दीपिका नारायण भारद्वाज भी मधु किश्वर के मत से सहमति जताती हैं.
वो कहती हैं, “हर मामले को लैंगिक भेदभाव से जोड़कर देखा जाना उचित नहीं है. सबरीमला मसले को भी संपूर्ण संदर्भ में देखा जाना चाहिए. ऐसा नहीं है कि हमारी धार्मिक मान्यताएं भेदभावपूर्ण नहीं है लेकिन अगर बात सिर्फ़ सबरीमला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न मिलने की है तो मुझे नहीं लगता कि ये अन्याय या भेदभाव है. मुझे नहीं लगता कि ये कोई मुद्दा होना भी चाहिए.”
दीपिका कहती हैं, “अगर कुछ महिलाएं सबरीमला मंदिर या निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में चली भी जाती हैं तो इससे पितृसत्ता ख़त्म नहीं हो जाएगी.”

महिलाओं के हक़ के नाम पर राजनीति
इस पूरे मामले और विवाद पर तृप्ति देसाई कहती हैं कि किसी पार्टी को महिलाओं के हक़ या आस्था से कोई लेना-देना नहीं है.
उन्होंने कहा, “जब हम शनि-शिंगणापुर मंदिर में जाने की कोशिश कर रहे थे तब बीजेपी ने हमारा इस तरह विरोध नहीं किया. जब हमने हाजी अली की दरगाह में औरतों के प्रवेश के लिए आंदोलन किया तब भी बीजेपी ने विरोध नहीं किया. लेकिन जब हम केरल के सबरीमला मंदिर में जाना चाहते हैं तो बीजेपी हमारे ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है.”
तृप्ति के मुताबिक, “इन विरोधाभासी फ़ैसलों का मतलब साफ़ है. केरल में बीजेपी सत्ता में नहीं है. ज़ाहिर है वो वहां हिंदू मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहती.”
आरफ़ा ख़ानुम कहती हैं, “ये बात ठीक है कि एक मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से पितृसत्ता तुरंत ख़त्म नहीं होगी. महिलाओं को कुछ ख़ास धर्मस्थलों पर न जाने दिया जाना एक छोटा मुद्दा लग सकता है लेकिन असल में ये एक प्रतीक है जो दिखाता है कि समाज में पितृसत्ता की जड़ें कितनी गहरी हैं. इन प्रतीकों को ख़त्म किया जाना ज़रूरी है.


सबरीमला, महिलाएं फोटो
आरफ़ा मानती हैं कि तीन तलाक़ मसले पर बीजेपी अपने आक्रामक रैवये से बहुसंख्यक वर्ग में ये संदेश पहुंचाना चाहती है कि वो मुसलमानों को ‘अनुशासित’ कर रही है. वहीं, सबरीमला मसले पर नर्म रवैया अपनाकर हिंदू समाज को ये दिखाना चाहती है कि वो उनकी धार्मिक आस्था के प्रति कितनी गंभीर है.
आरफ़ा कहती हैं, “महिलाओं के हक़ के संदर्भ में देखें तो भारतीय राजनीति ‘माचो पॉलिटिक्स’ के स्वरूप में ढली हुई है. यानी ऐसी राजनीति जहां मर्द अपनी ज़रूरत के हिसाब से महिला मुद्दों का इस्तेमाल करते हैं, जबकि असल में उन्हें इससे कोई वास्ता नहीं होता.”
क्या है सबरीमला विवाद?
कुछ महीने पहले तक केरल के सबरीमला मंदिर में 10-50 साल की उम्र की महिलाओं को प्रवेश की इजाज़त नहीं थी. धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक ये भगवान अयप्पा का मंदिर है, जो ब्रह्मचारी हैं. चूंकि 10-50 साल के बीच की उम्र की महिलाएं मासिक धर्म से गुजरती हैं इसलिए मंदिर में इस आयु वर्ग के महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी.
बाद में कई महिलाओं और संगठनों के हस्तक्षेप और विरोध के बाद सितंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि ये परंपरा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करती है.
अदालत की संवैधानिक बेंच ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक हटा दी थी और कहा था कि हर किसी को बिना किसी भेदभाव के मंदिर में पूजा करने की अनुमति मिलनी चाहिए.


जस्टिस इंदु मल्होत्रा

जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने क्या कहा था?
इस मामले में पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ की इकलौती महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बाकी जजों से अलग राय जताई थी, जिसका ज़िक्र पीएम मोदी अपने इंटरव्यू में कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि कोर्ट को धार्मिक मान्यताओं में दख़ल नहीं देना चाहिए क्योंकि इसका दूसरे धार्मिक स्थलों पर भी असर पड़ेगा.
जस्टिस इंदु ने कहा था, “देश के जो गहरे धार्मिक मुद्दे हैं, उन्हें कोर्ट को नहीं छेड़ना चाहिए ताकि देश में धर्मनिरपेक्ष माहौल बना रहे. अगर बात ‘सती प्रथा’ जैसी सामाजिक बुराइयों की हो तो कोर्ट को दख़ल देना चाहिए. लेकिन धार्मिक परंपराएं कैसे निभाई जाएं, इस पर कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. मेरी राय में तर्कसंगतता के विचारों को धर्म के मामलों में नहीं लाया जा सकता है.”
जस्टिस इंदु ने ये भी कहा था कि भारतीय संविधात में वर्णित समानता का सिद्धांत, अनुच्छेद-25 के तहत मिलने वाले पूजा करने के मौलिक अधिकार की अवहेलना नहीं कर सकता.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और भारी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद कई दक्षिणपंथी संगठनों ने महिलाओं को मंदिर में नहीं जाने दिया. यहां तक कि मंदिर में जाने की कोशिश करने वाली कुछ महिलाओं और पत्रकारों को हिंसा का सामना भी करना पड़ा.
हालांकि मंगलवार सुबह 10-50 साल की उम्र के बीच की दो महिलाओं ने पुलिस की सुरक्षा में मंदिर के अंदर जाने में क़ामयाब रहीं.
इस पूरे में मसले में बीजेपी और इसके समर्थन वाले संगठन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़े दिखाए दिए. ख़ुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि अदालत को ऐसे फ़ैसले सुनाने चाहिए जो व्यावहारिक हों.(बीबीसी न्यूज़ के इनपुट के साथ)

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity