एक इंसान हर वक़्त दो किस्म के दायरों से घिरा है ;-
पहला किस्म उस दायरे का है जो उसपर dominate करता है और जिसके मुताबिक चलने पर वो मजबूर है। जैसे मिसाल के तौर पर देखें तो पूरी कायनात अल्लाह के क़ानून के तहत चल रही है और चूंकि इंसान भी इस क़ायनात का हिस्सा है इसीलिए वो अल्लाह के उन क़वानीन को मानने पर मजबूर है। सूरज का अपनी हदों में रहना, ज़मीन का अपने तरीके पर हरकत करना, फूलों का खिलना, पेड़ पौधों का उगना जहां अल्लाह के क़ानून के ऐन मुताबिक होता है तो वहीं इंसान का मरना, उसका पैदा होना, बचपन से जवानी और उसके बाद बुढ़ापे को पहुंचना, सेहत और तंदरुस्ती जैसे तमाम मामलों में इंसान अल्लाह के क़ानून के सामने मजबूर होता है। वो लाख कोशिशों के बावजूद भी खुद को इन क़वानीन से आज़ाद नहीं रख सकता। इस दायरे में इंसानों के साथ होने वाले हादसात, मामलात पर लफ़्ज़े ‘क़ज़ा‘ का इतलाक़ होता है। अब चूंकि इस दायरे में इंसान के पास कोई अख्तियार नहीं होता इसीलिए उससे इस दायरे के मुताल्लिक कोई सवाल नहीं किये जाते, और ना ही इसके लिए गुनाहगार ठहराया जाता है।
दूसरा दायरा वो होता है जिसपर इंसान dominate करता है। ये वो दायरा होता है जिसपर अल्लाह ने इंसानों को अख्तियार दे रखा है। इसमें उसके पास ये अख्तियार होता है कि उसे जो बोलना है बोले, जो सोचना है सोचे, हासिल सामानों में से जिसे खाना है खाये जिसे फेंकना है फेंके, जिसको चाहे अच्छा कह दे, जिसे चाहे बुरा कह दे। जिसका चाहे इकरार कर ले जिसका चाहे इनकार कर दे। यानी कुल मिलाकर कहें तो इस दायरे में उसे Free will (आज़ाद मर्ज़ी) मिली होती है। इस दायरे के लिए अल्लाह ने इंसानों के लिए कुछ अवामिरो नवाही (Dos and don’ts) तय कर दिए है। अब इंसानों की मर्ज़ी है कि वो चाहे तो उन अवामिरो नवाही के मुताबिक़ अमल करें या उसको नज़रअंदाज़ करते हुए अपनी मनमानी करता फिरे। यही वो दायरा है जिसके मुताल्लिक़ इंसान जवाबदेह होता है और उनसे आख़िरत में सवालो जवाब होने है।
गोया कि इंसानों के पास इस दायरे में सबसे पहले 2 ऑप्शन्स होते है जिनमे से उसे किसी एक को ज़रूर से ज़रूर चुनना होता है।
पहला ऑप्शन ये होता है कि जिस तरह पूरी कायनात अल्लाह के क़वानीन के तहत चल रही है उसी तरह खुद को भी अल्लाह ही के बनाए हुए क़वानीन के तहत चलाए और अपने आपको अल्लाह के क़ानून के सुपुर्द कर दें। फिर चाहे कोई भी मामला हो, खाने-पीने, बोलने-सुनने, मानने-इनकार करने से लेकर ज़िन्दगी के हर उस शोअबे में अल्लाह के हुक्म की पैरवी कर ले। अल्लाह की मर्ज़ी को ही अपनी मर्ज़ी बना ले।
दूसरा ऑप्शन ये होता है कि वो अल्लाह के हुक्म को नज़रअंदाज़ करते हुए अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चलना शुरू कर दे, वो अल्लाह के क़ानून की पाबंदी का इनकार कर दे और अपनी मर्ज़ी का मालिक होकर गैरुल्लाह या खुद के नफ़्स की पैरवी करते हुए ज़िन्दगी गुज़ार दे। जो चाहे खाए जो चाहे पीए, जिसे चाहे हराम समझे, जिसे चाहे हलाल कह दे।
कुलमिलाकर कहें तो चूंकि इस दायरे में इंसान को अख्तियार हासिल होता है इसीलिए वो इस दायरे में अपने आमाल के लिए ज़िम्मेदार भी होता है, उससे क़यामत के दिन इस दायरे में किये गए आमाल के मुताल्लिक सवाल भी किया जाएगा और अगर उसने इस दायरे में गलती की होगी तो उसकी पुछगछ भी होनी है।
सय्यद क़ुतुब शहीद रह० लिखते है, जिसका मफउम है कि –
“उस हालत को #जाहिलियत कहा जायेगा जहां इंसान इंसानों का हाकिम होने लगेगा, क्योंकि ये क़ायनात के उसूलों के खिलाफ वाली बात है। ये वो हालत होगी जिसमें इंसान की ज़िंदगी के दो दायरे मुख्तलिफ(अलग-अलग) क़ानून के तहत चलना शुरू हो जाएंगे। जहां एक दायरा अल्लाह के हुक्म के मुताबिक चल रहा होगा तो वहीं दूसरा दायरा अल्लाह के क़वानीन का इनकार कर रहा होगा। जबकि होना तो यही चाहिए कि जिस तरह पहले दायरे में अल्लाह के क़ानून का राज है उसी तरह दूसरे दायरे में भी अल्लाह ही के क़ानून की पैरवी की जाए। जिस तरह पहला दायरा अल्लाह के क़ानून की पैरवी की वजह से अपने मकसद के हुसूल में कामयाब है उसी तरह दूसरे दायरे में भी अल्लाह ही के क़ानून की पैरवी करके अपनी ज़िंदगी के मकसद को कामयाबी के साथ हासिल कर लिया जाए। और जो कि बिना अल्लाह की मुकम्मल इताअत के मुमकिन ही नहीं। और ये जाहिलियत ही थी जिसने हर नबी की मुखालिफत की। यहां तक कि आखरी नबी मुहम्मद सल्ल० जो कि लोगों को दूसरे दायरे में (जिसमे इंसान को अख्तियार हासिल है) भी अल्लाह की इताअत की ओर बुलाने और अल्लाह के सिवा हर किसी की गुलामी का इनकार करने की दावत देने आए थे, को भी जाहिलियत से मुतास्सिर लोगों की मुखालिफत झेलनी पड़ी।
अब बारी हमारी और आपकी है, अब आप और हम मिलकर ये सोचें कि क्या आज के वक़्त में हम अपने दूसरे दायरे में पूरे तौर पर अल्लाह के हुक्म के मुताबिक चल रहे है या नहीं?