चिपको आंदोलन को पूरी दुनिया मे”पर्यावरणीय आंदोलन”के रूप में जाना जाता है”

45 साल पहले 25 मार्च के दिन गढ़वाल हिमालय के एक सीमान्त गाँव की महिलाओं ने मैदानी ठेकेदारों के हमले से अपने जंगलों को बचाने के लिए पेढों को घेर खड़ी हो गयीं थीं. आने वाले वर्षों में यह आन्दोलन देश और विदेश में चिपको आन्दोलन के नाम से मशहूर हुआ. गौरा देवी नामक एक ग्रामीण महिला के नेतृत्व में जन्मे इस आन्दोलन ने हमें कई ऐसी बातें सिखायीं जो शायद हम आज भूल गए हैं. आइये कुछ बातें आज याद कर लेते हैं:

जिस आन्दोलन को दुनिया भर में एक ‘पर्यावरणीय’ आन्दोलन का रूप दिया गया वह दरअसल आजीविका को सुरक्षित करने के लिए संघर्ष था जो आज भी हमारे देश में जारी है. वनों का संरक्षण, आजीविका और पहाड़ी जीवन की सुरक्षा के साथ अटूट रूप से जुडा है और जो समुदाय वनों के साथ रहते हैं, जब तक वनों पर जीवन व्यापन के लिए निर्भर हैं तब तक संरक्षण के लिए भी तत्पर रहेंगे.

पहाड़ी समाज में महिलाओं का जंगल से और भी गहरा रिश्ता रहा है. आज भी तीखी धारों में घास काटने पहुंची होती हैं औरतें और जंगलों से घर को लौटती, लकड़ी के बोझे ढोती हुई नज़र आती हैं.

चिपको, वन आधारित समुदायों का न पहला संघर्ष था और न आखरी, वनों का व्यापार जो अंग्रेजों के काल में शुरू हुआ था, आज भी जारी है. अंग्रेजों ने वन आधारित समाज को वनों से बेदखल करने का जो सिलसिला शुरू किया था वो आज और तेज़ी से चल रहा है. उनके कानून और उनका बनाया तंत्र आज भी खडा है.

वन अधिकार कानून 2006 एक पहला ऐसा कानून है जो वन भूमि पर आधारित लोगों की पहचान को मान्यता देता है – उनको वनों के संरक्षण और वनों से आजीविका कमाने का अधिकार देता है और इस प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित करता है. ये अलग बात है की इस कानून को धरातल पर लाने से शासन कतरा रहा है. पहाड़ों में तो सरकारें इस कानून की ज़रुरत को ही नहीं मानने को तैयार.

अब पहाड़ी समुदायों के सामने चुनौती है – क्या हम चिपको आन्दोलन जैसे संघर्षों को व्यर्थ जाने देंगे या इन्हें अंजाम तक पहुंचा पायेंगे?

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity