कांग्रेस नेताओं की हठधर्मिता व अड़यल रुख अपनाने के कारण कांग्रेस पार्टी गर्त्त मे जा रही है।

मध्यप्रदेश की हवा का रुख राजस्थान की तरफ होता नजर आ रहा है।

।अशफाक कायमखानी।जयपुर।
कांग्रेस का दिल्ली हाईकमान कमजोर होने व मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री व पीसीसी चीफ जैसे दोनो पदो पर कमलनाथ के काबिज होकर सत्ता का बंटवारा करने की बजाय सत्ता की धुरी अपने तक सिमित रखने का ही परिणाम है कि आज मध्यप्रदेश के कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी की प्राथमिक सदस्यता छोड़कर भाजपा से हाथ मिला चुके है। सिंधिया के साथ कांग्रेस के उन्नीस विधायको के पार्टी छोड़ने के समाचार आना भी कांग्रेस को बडा झटका है।

मध्यप्रदेश मे कांग्रेस सरकार बनने को 18-महिने होने को आने के बावजूद मुख्यमंत्री कमलनाथ स्वयं तो सत्ता का सुख भोगने मे किसी तरह की कमी नही छोड़ रहे है। लेकिन इसके उलट पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को सत्ता मे भागीदारी देने के लिये राजनीतिक नियुक्तियों के अब तक ना करने से उनके खिलाफ काफी गुस्सा पाया जा रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने से पहले राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट से मिलना भी अनेक शंकाओ को जन्म दे रहा है। सिंधिया की दादी का भाजपा की दिग्गज नेता रहने व बुवाओ का नेता होने की तरह सचिन पायलट के पिता भी सोनिया गांधी के सामने पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ चुके है।

कांग्रेस मे विचार विहीन नेताओं की बडी तादाद होने के कारण ही भाजपा के 167 मोजूदा सांसद कभी ना कभी कांग्रेस मे रहे है। नेताओं का एक बडा हिस्सा कांग्रेस मे रहते जरूर है लेकिन वैचारिक तौर पर वो संघ के काफी करीब होते है। जो केवल मात्र सत्ता सुख के लिये कांग्रेस मे रहते है जब उन्हें सत्ता नही मिलती है तो वो एक झटके मे सत्ता के लिये भाजपा मे जा मिलते है।

मध्यप्रदेश मे लगातार 15-साल भाजपा की सरकार रहने के बावजूद जनता ने मुश्किल से कांग्रेस को सत्ता के करीब लाकर सत्ता सोंपी थी। लेकिन जिस किसान-दलित व मुस्लिम तबके के समर्थन के बल पर कांग्रेस सत्ता मे आई ओर सत्ता पाते ही इन्हीं तबको को भूल गई है। मध्यप्रदेश की तरह ही राजस्थान मे भाजपा को हटाकर कांग्रेस की सरकार बनाने मे किसान-दलित व मुस्लिम समुदाय के समर्थन की प्रमुख भूमिका रही थी। लेकिन सत्ता आते ही एक तबका सत्ता का आनंद ले रहा है। ओर सत्ता लाने वाला दूसरा तबका दलित-किसान व मुस्लिम बूरे दौर से गुजर रहे है।

मध्यप्रदेश की तरह ही राजस्थान के मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत को 18-महिने होने को है। लेकिन सत्ता का बंटवारा कर नेताओं व कार्यकर्ताओं मे सत्ता मे भागीदारी बनाने की तरफ गहलोत ने किसी भी तरह के कदम नही उठाये है। सत्ता पर कुण्डली मारे बैठे गहलोत ने राजनीतिक नियुक्तियों के अलावा लोकायुक्त, सूचना आयुक्तो, राजस्थान लोकसेवा आयोग के सदस्यों के अतिरिक्त अनेक प्रकार के सवैधानिक पद जो रिक्त चल रहे है। उनमे से एक पद पर भी नियुक्ति नही की है। इसके अतिरिक्त महिला-किसान-एससी एसटी व अल्पसंख्यको के सम्बंधित बोर्ड व निगम पर नियुक्ति नही होने से उनमे निराशा के भाव पैदा हो चुके है। जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने पूत्र वैभव गहलोत के लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद जोड़-तोड़ करके सत्ता की ताकत के बल पर राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन RCA का अध्यक्ष बनवा कर एक तरह से सत्ता सुख मे भागीदार बना दिया है।

राजस्थान कांग्रेस सरकार मे भी सबकुछ ठीक नही चल रहा है। मुख्यमंत्री के टालते रहने की आदत से मजबूर एक मंत्री ने पिछले दिनो अपने स्तर पर जिला कन्जयूमर फोरम व स्टेट कन्जयूमर फोरम के सदस्यों का मनोनयन करके एक नई परिपाटी को जन्म दे दिया है।उक्त मनोनयन प्रक्रिया असंतोष दर्शाता है। अशोक गहलोत राजस्थान के तीसरी दफा मुख्यमंत्री बने है। 156 से अधिक सीट जीतकर 1998-03 तक अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब आम चुनाव हुये तो कांग्रेस 56 पर सीट आ लुढकी, फिर 2008-13 मे 96 सीट जीतकर फिर गहलोत मुख्यमंत्री बनने के बाद आम चुनाव मे कांग्रेस 21 सीट पर आकर लुढकी एवं अब यही हालात रहे ओर पांच साल पूरे होने पर चुनाव होगे तो पांच सीट भी आना मुश्किल माना जा रहा है। मध्यप्रदेश से कांग्रेस हाईकमान ने सबक लेकर सुधार नही किया तो राजस्थान भी मध्यप्रदेश की राह पकड़ सकता है।

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is a young journalist & editor at Millat Times''Journalism is a mission & passion.Amazed to see how Journalism can empower,change & serve humanity